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सप्तभंगी
५३५/११५८ भी होते है ।) वे सर्व पर्याय पदार्थो के स्वरूपात्मक होने से "अर्थपर्याय" कहा जाता हैं । जैसे कि पदार्थो का प्रत्येक क्षण में जो जो स्वरूप बदलता हैं. तत तत स्वरूप वचनो से अगोचर होने पर भी पदार्थ में स्वरूप तो हैं ही । प्रतिक्षण सर्व द्रव्यो का स्वरूप बदलता होने से भिन्न भिन्न है । परन्तु तत्तत्समयवर्ती वह भिन्नता शब्दो से अगोचर हैं इसलिए वे सभी अर्थपर्याय हैं और जो जो पर्याय कुछ अंश से दीर्घकालवर्ती हैं और उसके ही कारण वचनो से बोले जा सके वैसे है, वे व्यंजनपर्याय कहे जाते हैं । जैसे कि मनुष्यजीवन की बाल्य, युवा और वृद्धावस्था । तथा घट-पटादि पदार्थों की श्यामावस्था और रक्तावस्था उस वचनो से गोचर हैं. दीर्घकालवी पर्याय हैं । इसलिए वह व्यंजन पर्याय कहा जाता हैं और प्रतिक्षण पुरणगलन द्वारा होता घट-पट का नया नया स्वरूप, जीवद्रव्य में प्रतिसमय क्षायोपशमिक भाव से और
औदयिक भाव से होती परावृत्ति तथा पुद्गलद्रव्य में प्रतिक्षण होते वर्ण-गंध-रस और स्पर्शादि की हानि-वृद्धि रूप जो पर्याय हैं वह पदार्थ में निश्चित वर्तित हैं । बुद्धि से समझ में भी आते हैं, परन्तु वचन से नहीं बोले जा सकते वे अर्थपर्याय हैं।
अर्थपर्यायों में सप्तभंगी के सात भांगे संभवित हैं । परन्तु व्यंजन पर्याय में पहले और दूसरे ऐसे दो भांगे से भी पदार्थ की सिद्धि सम्मति प्रकरण नाम के ग्रंथ में बताई हैं । “स्यादस्ति" और "स्यानास्ति" ये दो ही भांगे (तथा ये दो लिखने से "स्यादस्तिनास्ति" नामका गाथा के क्रमानुसार तीसरा भांगा भी समझ लेना) इस प्रकार दो भांगे से वस्तु का संपूर्ण स्वरूप समझा जा सकता हैं और समझाया जा सकता हैं । क्योंकि बाकी के सभी भागो में “अवक्तव्य" शब्द आता हैं। अब जो भांगा "अवक्तव्य" हो वहाँ वचनोञ्चार किस तरह से संभवित हैं ? और “वचनोच्चार" यदि संभवित हो तो वह "अवक्तव्य" कैसे कहा जायेगा ? इसलिए सम्मति प्रकरण में पूज्यपाद श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी महाराजश्री अर्थपर्याय में सप्तविकल्प और व्यंजन पर्याय में दो विकल्प बताते हैं । उस ग्रंथ की गाथा इस अनुसारसे हैंएवं सत्तविअप्पो, वएण-पहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए पुण, सविअप्पो निम्विअप्पो य।। प्रथमकाण्ड
: इस अनसार से अर्थपर्याय में सात विकल्पोवाला वचनमार्ग होता है । परन्तु व्यंजनपर्याय में केवल सविकल्प और निर्विकल्प ऐसे दो ही भांगे होते हैं । सम्मत्ति प्रकरण की गाथा का अर्थ टबें में इस अनुसार से हैं।18) - (सम्मति प्रकरण की) इस गाथा का अर्थ इस अनुसार से हैं कि - एवं पहले समजाये अनुसार, सत्तविअप्पो = सप्त विकल्प अर्थात् सात प्रकारवाला वएणपहो = वचनपथ - सप्तभंगी स्वरूप वचनमार्ग - अलग अलग तरह से बोले जाते सात प्रकार के जो भांगे हैं, वह भांगे, होइ अत्थपज्जाए = अर्थपर्याय के विषय में होते हैं । अर्थात् अर्थपर्याय के बारे में "स्यादस्ति, स्यान्नास्ति" इत्यादि स्वरूपवाले सात प्रकार के सात भांगे होते हैं ।
वंजणपज्जाए पुण - परन्तु जो व्यंजन पर्याय हैं, जैसे कि, “यह घट है" "यह कुंभ है" इत्यादि घट, कुंभ इत्यादि शब्दोच्चार द्वारा बोलने स्वरूप, जो जो जीभ से उच्चारण करने स्वरूप कुछ दीर्घकालवर्ती व्यंजन पर्याय है, उसके विषय में तो सविअप्पो = सविकल्प और निविअप्पो य = निर्विकल्प स्वरूप दो ही भांगे होते है । सविकल्प अर्थात् विधानात्मक और निर्विकल्प यानी निषेधात्मक ऐसे दो ही भांगे होते है । "स्यादस्ति, स्यान्नास्ति" इत्यादि कोई भी सप्तभंगी के प्रथम दो भांगे कि जो विधि-निषेधरूप है, वे दो ही भांगे होते हैं और इससे अतिरिक्त दो के संयोगवाला एक तीसरा भांगा ज्यादा होता हैं ।) परन्तु अवक्तव्यादि पदवाले शेष भांगे संभवित नहीं है । जे माटि = क्योंकि शेष भांगे में "अवक्तव्य" = न कहा जा सके यह पद आता हैं और व्यंजनपर्याय अर्थात् शब्दोच्चारण द्वारा बोला जा सके वह । अब जो "अवक्तव्य" हो, उसे शब्दविषयक (बोले जा सके वैसे) कहे तो परस्पर विरोध होता है। जो अवक्तव्य हो वह 18.टबो - एहनो अर्थ - एवं पूर्वोक्त प्रकारइं सप्तविकल्प सप्तप्रकार वचनपथ - सप्तभंगीरूप वचनमार्ग, ते अर्थपर्यायं, अस्तित्व -
नास्तित्वादिकनई विषई होइ, व्यंजनपर्याय जे घटकुंभादिशब्दवाच्यता, तेइनई विषई सविकल्प-विधिरुप, निर्विकल्प - निषेधरूप, ए र ज भांगा होइ, पणि अव्यक्तव्यादि भंग न होइ, ते माटिं - अव्यक्तव्य शब्दविषय कहिइं तो विरोध थाइ ।
गाथा४।। अर्थ
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