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सप्तभंगी
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तावन्नयार्थनिषेधबोधक उतने ही शेष नयो के जो जो अर्थ प्रथम भांगे में निषेधरूप से गौणता से लाये थे, उतने नयो के तत् तत् अर्थो के निषेध की प्रधानता सूचक दूसरा भांगा भी कर लेना । जैसे कि, "यह कथंचिद् घट हैं" यह प्रथम भांगे ही जो-जो द्रव्य क्षेत्र काल और भाव से घट नही हैं, वह भी कथंचिद् शब्द द्वारा गौणता से आ ही गया हैं । तथापि उस निषेधात्मक स्वरूप को प्रधानता से जानना हो तो वह जानने के लिए "यह घट कथंचिद् नास्ति भी हैं ही" ऐसा दूसरा भांगा भी कर लेना । प्रथम भांगो में जैसे वस्तु का संपूर्ण स्वरूप है वैसे दूसरे भांगे में भी वस्तु का संपूर्ण स्वरूप है ही । केवल प्रधानता भिन्न-भिन्न की है । इस अनुसार से मूल से दो भांगे हुए अर्थात् वे दो ही भांगे हैं, मूल में ऐसे दूसरे भी एक-दूसरे
संचारण से वैसी ही तरह से बाकी के पाँच भांगे भी सोच ले । ऐसा करने से कोई भी स्वरूप समजने में "सप्तभंगी" का जो आग्रह है, वह भी संतुष्ट होगा और कोई दोष नहीं आयेगा, इस तरह से एक भांगे से भी स्याद्कार लांछित होने से वस्तु का पूर्णरूप समझ में आता है तथा सात भांगे द्वारा भी स्वाकार के कारण वस्तु का पूर्ण स्वरूप समज में आता है, ऐसा करने से अब कोई भी आकांक्षा (वस्तु स्वरूप जानने की तमन्ना अधुरी नहीं रहती है, इसलिए आकांक्षा) रहित रूप से सर्व भांगो का निर्वाह हो ही जाता हैं । यही मार्ग युक्तियुक्त हैं । ऐसा हम को समझ में आता है। (इस प्रकार पू. यशोविजयजी म. श्री बताते हैं ।) ये विचार अतिशय सूक्ष्म हैं, गंभीर है। सूक्ष्मबुद्धि से ही ग्राह्य है । इसलिए "स्याद्वाद" के विषय में पंडित हुए पुरुषो को सूक्ष्मबुद्धि द्वारा मन में ये विषय और उसके संबंधित स्याद्वाद युक्त विचारो की धारणा करे । निर्धारपूर्वक मन में ठसाये यही सच्चा आत्म कल्याण का मार्ग हैं ।
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जैन भाव की सार्थकता
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सप्तभंग ए दृढ अभ्यासी, जे परमारथ देखई रे । जस कीरति जगि वाधई तेहनी, जइन भाव तस लेखई रे ।।४-१८ ।।
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गाथार्थ : इस सप्तभंगी का दृढ (ठोस) अभ्यास करके जो जो विद्वान पुरुष परमार्थ को ( पदार्थो के यथार्थ स्वरूप को) जानते है उनकी यशोगाथा और कीर्ति इस जगत में वृद्धि पाती है और उनका ही जैनभाव सार्थक होता है । (सफलता पाता है ।) (४-१८) (20)
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कहने का सार यह है कि, फलितार्थ बाहइ छड़ इस ढालो का फलितार्थ (सारांश) बताते हैं कि यह सप्तभंगी, सात नय, निश्चयनय, व्यवहारनय, त्रिपदी ये सभी पारमार्थिक रुप से जानने योग्य है । यही जैनदर्शन का सार है । ये समज में आये तो ही विश्व का यथार्थ स्वरूप समज में आये और विश्व का यथार्थ स्वरूप समझ में
नैगमनय मुख्य करे तब शेष-संग्रहादि छः गौण, यह प्रथम भांगा तथा संग्रह मुख्य शेष गोण, व्यवहार मुख्य शेष गोण, ऋजुसूत्र मुख्य शेष गौण, शब्द मुख्य शेष गौण, समभिरूढ मुख्य शेष गौण और एवंभूत मुख्य शेष गौण इस प्रकार छः प्रकार से पहला भांगा हो और उससे दूसरी और करने से यानी कि शेष मुख्य नैगम गौण, शेष मुख्य संग्रह गौण इत्यादि तरह से करने से दूसरा भंग । इस प्रकार मूलभूत र ही भांगे हो, शेष भागे संचारणा करने से सात ही भांगे होगे, अधिक भांगे नहीं होते । चालनी न्यायका अर्थ "लोककन्यायांजली" नाम के ग्रंथ में हो ऐसा लगता है वह ग्रंथ मिल नहीं सका । चालनी में जैसे नीकलने के रास्ते बहोत हैं। वैसे यहाँ पहला दूसरा भांगा बहोत ही प्रकार से करे
परन्तु बहोत भांगे न करे ।
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20. टबो फलितार्थ कहह छड़ ए कहिया जे सप्तभंग ते रढ अभ्यास सकलप्रदेश विकलादेश, नयसप्तभंग प्रमाणसप्तभंग इत्यादि इदं घणो अभ्यास करी, जे परमार्थ देखइ, जीवाजीवादि परमार्थ रहस्य समजइ, तेहनी यशकीर्ति वाधइ । “जे माटई स्याद्वादपरिज्ञानई अनई जेनभाव पणि तेहनो ज लेखइ जे माटि निश्चयथी सम्यक्त्व स्याद्वाद परिज्ञाने ज छ।"
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ज जैननई तर्कवाद का यश छ उक्तं च सम्मती
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चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरसमयमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं निच्छयशुद्धं ण याणंति ।।३ ६७ ।। (स.प्र.) ए चोथइ ढालइ भेदाभेद देखाइयो, अनई सप्तभंगीनुं स्थापन करिउं । । ४ -१४ ।।
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