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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट- ४ आये तो ही मिथ्याज्ञान नष्ट होता है । सम्यक्त्वादि गुणस्थानको की प्राप्ति होती है । उसके लिए यह सप्तभंगी आदि भावो का दृढ ( मजबूत - ठोस ) अभ्यास करना आवश्यक हैं ।
इसी बात को ग्रंथकार श्री स्वयं ही करते है - उपर समजाये हुए जो सातभांगे (सप्तभंगी) है, उसका जो जो विद्वान पुरुष दृढ अभ्यास करते हैं और उसके अनुसंधान में आते सकलादेश, विकलादेश, नयसप्तभंग, प्रमाणसप्तभंग, त्रिपदी, भेदाभेद, नित्यानित्य, सामान्य- विशेष, अस्ति नास्ति इत्यादि प्रकारो से बहोत विस्तार करनेपूर्वक जो परमार्थ रूप से (जैसा है वैसा यथार्थ ) जगत के स्वरूप को जानते हैं। जीव अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि नौ तत्त्वो और छः द्रव्यो का परमार्थ स्वरूप (पदार्थो का जैसा स्वरूप है वैसा स्वरूप ) उसका रहस्य = सार जो जो महापुरुष समजते है, इससे वे महात्मा यथार्थ ज्ञानी होते है और यथार्थज्ञानी होने से जहाँ जाये वहाँ वस्तु का यथार्थ स्वरूप समझाने द्वारा यथार्थवादी होते है । उनकी वाणी कही किसी के भी साथ टकराती नहीं है । नहीं पाती है । उनके वचनो को कोई तोड़ नहीं सकता है । कोई भी वादी उनका पराभव नहीं कर सकता है । क्योंकि यह वाणी वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा की है । समजानेवाले पुरुष तो उसके प्रचारक-प्रसारक एक प्रकार के दलाल है । मालिक नहीं है । मालिक वीतराग सर्वज्ञ प्रभु होने से संपूर्ण सत्य है । इसलिए यह जाननेवाले का सर्वत्र विजय होता है । यह वाणी निर्दोष और यथार्थ होने से उसे समझनेवाले का और उसके प्रचारक का यश और कीर्ति सदाकाल दशो दिशा में वृद्धि पाती है । एक दिशा में फैले उसे कीर्ति कहा जाता है और सर्व दिशा में फैले उसे यश कहा जाता है । अथवा पराक्रम जन्य प्रशंसा वह यश और त्याग तप आदि शेष गुणो से जन्य जो प्रशंसा उसे कीर्ति कहा जाता है । सच्चा समजनेवाले और सच्चा समजानेवाले का बिना कहे और बिना चाहे यश और कीर्ति स्वतः ही बढते हैं ।
सप्तभंगी और सातनयो के दृढ अभ्यासी का ही यश और कीर्ति क्यों बढे ? उसका कारण समजाते हुए कहते है कि - जिस कारण से स्याद्वाद शैली का (अनेकान्तमय संसार की स्वयंभू व्यवस्था का) परिज्ञान जो आत्मायें प्राप्त करता है, वही आत्मा जैनत्व को प्राप्त तर्कशास्त्रों में पारगामी और यशस्वी सिद्ध होता हैं । चाहे जैसी एकान्तवादी की पैनी मजबूत दलीलो का भी स्याद्वादी आत्मा तोडकर चूरचूर कर सकते है और राजसभा में यथार्थ वाद करने द्वारा स्वरूप समझाकर स्याद्वाद का विजय डंका बजा सकते है और इस तरह से जिनेश्वर परमात्मा की परम शुद्ध वाणी रूप जैनशासन की प्रभावना करने द्वारा उसी आत्मा का " जैनभाव" (जैनत्व की प्राप्ति) भी सफल होता है । सार्थक लगता है। क्योंकि निश्चयदृष्टि से " सम्यक्त्व की प्राप्ति स्याद्वादशैली के विशाल ज्ञान द्वारा ही होती है ।
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स्याद्वाद अभ्यास की आवश्यकता : परम पूज्य सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी महाराज श्री सम्मति प्रकरण में बताते हैं कि- चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरसमयमुक्कवावारा । चरणकरणस्स सारं, निच्छयशुद्धं ण याति ।।३
६७ ।।४-१८ ।।
चरण सत्तरी और करण सित्तरी के आचार काया द्वारा पालने में प्रधानतम ऐसे आत्मा भी यदि स्वसमय । (जैनी आगम शास्त्रो में) और परसमय (अन्य दर्शनीय शास्त्रो में) जो जो भावो का वर्णन किया है, उन सभी को जानने का व्यापार (व्यवसाय) जिन्हों ने छोड दिया है । बारीकाई से शास्त्रज्ञान पाने का प्रयास जो करते नहीं है, वे अपने द्वारा पाली जाती चरण सित्तरी और करणसित्तरी के शुभ आचारो के सारभूत निश्चयशुद्ध मर्म को जानते नहीं हे इसलिए स्याद्वाद शैली का परिज्ञान अवश्य पाना ही चाहिए ।
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पाते नहीं है ।
('सप्तभंगी विशेष' नामक चेप्टर में सुश्रावक धीरुभाई पंडितजी द्वारा अनुवादित पुस्तक में से साभार कुछ पदार्थों का संकलन किया है ।)
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