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सप्तभंगी
५३३/११५६ और अवाच्य होता है। तथा क्रमशः दोनों नयो की अर्पणा करने के बाद युगपत् रुप से दोनों नयो की अर्पणा करने से वस्तु भिन्न, अभिन्न और अवाच्य बनती है ।।४-१३।।
कहने का आशय यह है कि, उपरोक्त १०-११-१२ गाथा में भेदाभेद की सप्तभंगी के प्रथम के ५ भांगे समजाकर अब इस गाथा में छठ्ठा, सांतवाँ भांगा समझाते हैं (६) प्रथम अकेले द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानता की कल्पना करे और उसके बाद एक ही काल में एकसाथ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे उभय नय की अर्पणा (प्रधानता) करे तब सभी वस्तुयें "कथंचिद् अभिन्न और कथंचिद् अवक्तव्य" ऐसे प्रकार की है यह छठ्ठा भांगा जानना । (७) तथा क्रमश: प्रथम पर्यायार्थिक नय की और बाद में द्रव्यार्थिक नय की ऐसे क्रमशः दोनों नयो की अर्पणा (प्रधानता) करके उसके बाद दोनों नयो की एकसाथ युगपत् रुप से अर्पणा करे तब सभी वस्तुयें “कथंचिद् भिन्न कथंचिद् अभिन्न और कथंचिद् अवक्तव्य" ऐसे प्रकार की होती है । यह सांतवाँ भांगा जानना । ___ वस्तु में रहे हुए “भेदाभेद" नाम के पर्यायो में जिस तरह से यह सप्तभंगी समजाई, उसी तरह से वह सप्तभंगी सर्वत्र निकाले । सारांश कि, कोई भी वस्तु में परस्पर विरोधी दिखते दो धर्म भी विवक्षा के वश से समन्वयात्मक रुप से साथ रहते ही हैं । दो धर्म विवक्षा भेद से साथ रहते होने से प्रथम के दो भांगे होते है और उसके बाद संचारण से शेष पांच भांगे होते है । इस प्रकार सर्वत्र सप्तभंगी की योजना जान ले ।
कोई शिष्य प्रश्न करता है कि - जब जब द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय ऐसे दो ही नय के विषयो की विचारणा करनी हो तब तो वहाँ क्रमश: पहले नय की मुख्यता और दूसरे नय की गौणता करने से पहला भांगा और दूसरे नय की मुख्यता और पहले नय की गौणता करने से दूसरा भांगा, ऐसे मूल २ भांगे हो सकते हैं और उसके बाद एक दूसरे के संचारण से कुल मिलाकर २ + ५ = ७ भांगे = सप्तभंगी अच्छी तरह से होती है । उसमें तो सप्तभंगी हो यह बात उचित ही है । परन्तु जब शास्त्रो में बताये हुए “प्रदेश और प्रस्थक" आदि के दृष्टान्तो की विचारणा करने द्वारा नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इस प्रकार ७ नयो की अथवा नैगमनय का संग्रह और व्यवहार नय में अन्तर्भाव करने से छ: नयो की अथवा समभिरूढ और एवंभूत नय का शब्दनय में अन्तर्भाव करने से नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्दनय ऐसे पांच नयो की विचारणा की जाती है । तब सात-छ: पांच नयो में से क्रमशः एक नय को मुख्य करने से और क्रमश: दूसरे नयो को गौण करने से प्रथम के मूल दो भांगे की जगह ही बहोत भांगे हो जाते हैं और उसके बाद संचारण करने से तो अगणित ऐसे अधिक भांगे होंगे । उस समय “सप्तभंगी का" (सात ही भांगे हो) ऐसा नियम किस तरह से संगत होगा, इस तरह से कोई शिष्य गुरुजी के सामने प्रश्न करता हैं -
दो नय ले तो (१) द्रव्या मुख्य, पर्या. गौण, (२) पर्या. मुख्य, द्रव्या, गौण,
सात नय ले तो (१) नैगम मुख्य संग्रह गौण, (२) नैगम मुख्य व्यवहार गौण, (३) नैगम मुख्य ऋजुसूत्र गौण, (४) नैगम मुख्य शब्द गौण, (५) नैगम मुख्य समभिरुढ गौण (६) नैगम मुख्य एवंभूत गौण
नैगमनय के साथ शेष छ: नय गौणता से जोडने से उपर बताये अनुसार ६ भांगे जैसे हुए, वैसे संग्रह के साथ शेष ६ नय जोडने से ६ भांगे होंगे । इस तरह से व्यवहारादि एक एक नय के साथ छ: छ: जोडने से ७ x ६ = ४२ भांगे होंगे। इसलिए मूल २ भांगे के बदले ४२ भांगे होने से और उन सब का संचारण करने से अनेक भांगे हो, इसलिए सप्तभंगी का नियम कैसे रहेगा ?
इस अनुसार से दो भांगे के बदले ४२ भांगे यदि हो तो उसके परस्पर जुडने से तो बहोत अधिक भांगे होते हैं । तो तब सात ही भांगे हो, ऐसा सप्तभंगी का नियम कैसे रहेगा ? ऐसे प्रकार का शिष्य का गुरु के प्रति प्रश्न हैं। दो ही नय
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