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सप्तभंगी
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पाठ में प्रथम द्रव्यार्थिक नय का और बाद में पर्यायार्थिक नय का जो उल्लेख किया है और भिन्नाभिन्न समजाने से प्रथम भिन्न का और बाद में अभिन्न का जो उल्लेख किया है, वह क्रमशः न होने से भूल हो, ऐसा लगेगा । परन्तु उसमें भूल हैं ऐसा न समजना । बोलने की प्रसिद्धि के कारण ऐसा उल्लेख किया हुआ है । जब जब ये दो नयो के नाम बोलने होते हैं तब तब द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक इस क्रम से बोलने में जुबानपे जैसे चढे हुए है ऐसे पर्यायार्थिक-द्रव्यार्थिक बोलने से जुबानपे नहीं चढे हुए हैं तथा भेदाभेद में जब जब बोलना होता है तब तब लोक प्रसिद्ध ऐसा भिन्नाभिन्न शब्द जैसे जुबान पे चढा हुआ हैं, वैसा अभिन्नभिन्न जुबान पे नहीं चढा हुआ हैं । इसलिए बोलने की पद्धति मात्र के कारण ऐसा लिखा हुआ हैं, परन्तु भूल है, ऐसा न समझना । यह तीसरा भांगा जाने ।
(४) जो एकदा उभयनय गहिइं, तो अवाच्य ते लहिई रे । एकई शब्दई एक ही वारई, दोइ अर्थ नवि कंहिइं रे ।।४-११।।14) - एक ही काल में दोनों नय यदि ग्रहण करे तो सर्व वस्तुयें “अवाच्य" ही जाने । क्योंकि एक ही शब्द से एक ही काल में दोनों अर्थ नहीं कहे जा सकते है ।।४-१२ ।। सारांश यह है कि, अगली गाथा में भेदाभेद की सप्तभंगी के प्रथम तीन भांगे समजाये । अब इस गाथा में मात्र अकेला “अवक्तव्य" नामका चौथा भांगा समजाते हैं । यहाँ अवक्तव्य नामका यह भांगा चौथे नंबर से कहा हैं । अगली गाथा के टबे में अस्ति-नास्ति के सप्तभंगी के प्रसंग में तीसरे क्रम से कहा हैं । यहाँ विवक्षा भेद ही जानना ।
(४) जो एकबार २ नयना अर्थ विवक्षिइ, तो ते अवाच्य कहि, जे मार्टि एक शब्दई एक वारइं - २ अर्थ न कहिया जाइ ४। - जब एक साथ दोनों नयो के अर्थ प्रधानरूप से सोचे, तब वह पदार्थ अवाच्य बन जाता है, क्योंकि, एक ही शब्द से एक ही काल में परस्पर विरोधी दिखाई देते दो अर्थ नहीं कहे जा सकते हैं । (यद्यपि एक गौण और एक प्रधान ऐसा कहा जा सकता है । परन्तु दोनों अर्थ प्रधानरूप से नहीं कहे जाते हैं ।) इसलिए सर्व वस्तु अवाच्य भी कही जाती है। तथा दोनों नयो की एक साथ प्रधानता करने से वस्तु जो “अवाच्य” बनती हैं, वह भी “स्याद्" अर्थात् "कथंचिद्" ही अवाच्य बनती है, सर्वथा अवाच्य नहीं बनती है । क्योंकि यह वस्तु दोनों नयो की प्रधानता के काल में "अवाच्य" हैं। ऐसा तो बोला जाता ही है अर्थात् “अवाच्य" शब्द से तो वाच्य बनती ही हैं । सर्वथा यदि अवाच्य होती तो अवाच्य शब्द से भी वाच्य न होती । इसलिए यह चौथा “अवाच्य" भांगा भी 'स्यादवाच्य' ही समजना ।
कुछ संकेतित शब्द दो अर्थ को कहते हो, ऐसा दिखता हैं, जैसे कि, “पुष्पदंत अर्थात् चंद्र और सूर्य” “दंपती अर्थात् पति और पत्नी” “पितरौ अर्थात् माँ और बाप" ऐसे कोई कोई शब्द दो अर्थो को एकसाथ एक ही बारी में कहते हों ऐसा दिखता हैं, इस विषय में ग्रंथकारश्री खुलासा करते हैं कि-(15) सांकेतिक शब्द भी दो के जोडेरूप सांकेतिक ऐसे एक ही (कपलरूप) अर्थ को कहते है । परन्तु दोनों स्वरूपो को स्पष्टरूप से - स्वतंत्ररूप से नहीं कह सकते । पुष्पदंतादिक कुछ शब्द जो चंद्र-सूर्य ऐसे दो अर्थ साथ कहते है, वह ‘एकोक्ति से' कहते हैं, ऐसा जानना परन्तु “भिन्नोक्ति से" दो अर्थ यह शब्द नहीं कह सकते हैं । एकोक्ति अर्थात् जोडेरूप अर्थ कहना । चंद्र और सूर्य ऐसा दो वस्तु नहीं है । परन्तु चन्द्र14.टबो - जो एकवार २ नयना अर्थ विवक्षिई, तो जे अवाच्य लहिइं, जे माटिं - एक शब्दई एक वारई - २ अर्थ न कहीया जाए ।
“संकेतित शब्द पणि एक ज संकेतित रुप (अर्थ) कहइं पणि २ रुप (अर्थ) स्पष्ट न कही शकई" पुष्पदंतादिक शब्द पणि एकोक्ति चंद्र सूर्य कहइ, पण भिन्नोक्ति न कही शकइ । अनइ २ नयना अर्थ मुख्यपणई तो भिन्नोक्ति ज कहवा घटइ । इत्यादिक युक्ति
शास्रान्तरथी जाणवी ।।४-११ ।। 15."संकेतित शब्द पणि एक ज संकेतित रुप (अर्थ) कहइ, पणि २ रुप (अर्थ) स्पष्ट न कही शकइ" पुष्पदंतादिक शब्द पणि एकोक्ति
चंद्र-सूर्य-कहई, पणि भिन्नोक्तिं न कही शकइ अनई २ नयना अर्थ मुख्यपणइ तो भिन्नोक्तिं ज कहवा घटइ, इत्यादिक युक्ति, शास्त्रान्तरथी जाणवी ४ (४-१२)
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