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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-४
सूर्य का युगल (जोडा) ऐसा अर्थ समजाते हैं । भिन्नोक्ति अर्थात् दोनों वस्तु स्वतंत्र रुप से भिन्न भिन्न कहना । युगल की प्रधानता नहीं । परन्तु व्यक्ति की प्रधानता वह भिन्नोक्ति कही जाती हैं । द्वन्द्व समास में जो समाहारद्वन्द्व समास है । वह एकोक्तिरूप हैं और इतरेतर द्वन्द्व समास है वह भिन्नोक्तिरूप हैं । यहाँ पुष्पदंतादिक शब्दो में दोनों अर्थ अवश्य कहे जाते हैं, परन्तु एकोक्ति द्वारा कहा जाता हैं। परन्तु भिन्नोक्ति द्वारा नहीं कहे जाते और दोनों नयो के अर्थ मुख्यतः ही (अर्थात् स्वतंत्ररूप से प्रधानता से तो) भिन्नोक्ति द्वारा ही कहा जा सकता है। इत्यादि अनेक युक्तियाँ अन्य शास्त्रो से जाने । यह चौथा भांगा समजाया ।
(५) पर्यायारथ कल्पन, उत्तर-उभय विवक्षा संधि रे । भिन्न अवाच्य वस्तु ते कहीइं स्यात्कारनई बंधि रे ।।४-१२।। गाथार्थ : प्रथम पर्यायार्थिकनय की कल्पना करके उसके बाद दोनों नय के साथ विवक्षा जोडे तो प्रत्येक वस्तु “भिन्न और अवाच्य है" और वह भी "स्यात्" शब्द से बंधी हुई हैं ।।४-१२ । ।(16)
कहने का आशय यह है कि, भिन्नाभिन्न के उपर सप्तभंगी के चार भांगे समजाकर अब पाँचवां भांगा इस बारहवीं गाथा में समजाते है। पहले पर्यायार्थिकनय की कल्पना करके उसके बाद एक ही काल में दोनों नयो की एकसाथ प्रधानता करे तब सर्व वस्तु कथंचिद् भिन्न और अवक्तव्य हैं ऐसा कहा जाता हैं । क्योंकि प्रथम पर्यायार्थिक नय से प्रधानरूप से भेद लगता है। उसके बाद दोनों नयो की एकसाथ (युगपत् रुप से) विचारणा करने से उभय स्वरूप को प्रधानरूप से कहनेवाला कोई शब्द न होने से वह वस्तु कथंचिद् अवक्तव्य भी बनती ही हैं । इस अनुसार यह पाँचवां भांगा जानना ।।५२।।
(६-७) द्रव्यारथ नई उभय ग्रहियाथी, अभिन्न तेह अवाच्यो रे । क्रम युगपत् नय उभय ग्रहियाथी, भिन्न अभिन्न अवाच्यो रे।।४-१३।।17) द्रव्यार्थिक नय और उभयनयो की युगपत् रुप से विवक्षा करने से वही पदार्थ अभिन्न
16.टबो - प्रथम पर्यायार्थ कल्पना, पछइ एकदा उभय-नयार्पणा करिइं, तिवारई भिन्न अवक्तव्य कथंचिद् इम कहइ-५ (८-१२।। 17.टबो - प्रथम द्रव्यार्थकल्पना, पछइ-एकदा उभयनयार्पणा करिइं, ति वारई कथंचित् अभिन्न अवक्तव्य इम कहिइं, ६ अनुक्रमई २
नयनी प्रथम अर्पणा, पछइ २ नयनी एकवार अर्पणा करिई, ति वारइं कथंचित् भिन्न अभिन्न अवक्तव्य इम कहिई (७) ए भेदाभेद पर्यार्यमांहि सप्तभंगी जोडी, इम सर्वत्र जोडवी । शिष्य पूछइ छइ - "जिहाँ २ ज नयना विषयनी विचारणा होइ, तिहां एक एक गौण मुख्यभावई सप्तभंगी थाओ । पणि-जिहां प्रदेश प्रस्थकादि विचारई सात छ पांच प्रमुख नयना भिन्न भिन्न विचार होइ, तिहां अधिक भंग थाइ, तिवारई सप्तभंगीनो नियम किम रहइ ?" गुरु कहइ छइ - "तिहां पणि एक नयार्थनो मुख्यपणई विधि, बीजा सर्वनो निषेध, इम लेइ प्रत्येकि अनेक सप्तभंगी कीजइ" अम्हे तो इम जाणुं छु "सकलनयार्थ - प्रतिपादकतात्पर्यादधिकरणवाक्यं प्रमाणवाक्यम्" ए लक्षण लेइनइं, तेहवे ठामे स्यात्कारलांछित सकलनयार्थ - समुहालंबन एक भंगइ पणि निषेध नथी । जे मार्टि - व्यंजनपर्यायनई ठामि-२ भंगई पणि अर्थसिद्धि सम्मतिनई विषइ देखाडी छइ । तथा च तद्गाथा - एवं सत्तविअप्पो, वएणपहों होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए पुण, सविअप्पो णिविअप्पो य ।प्रथमकाण्ड-४१।। एहनो अर्थ - एवं पूर्वोक्त प्रकारई । सप्त विकल्प-सप्त प्रकार वचनपथ, सप्तभंगीरुप वचनमार्ग ते अर्थपर्याय, अस्तित्व-नास्तित्वादिकनई विषइ होइ, व्यंजन पर्याय जे घटकुंभादिशब्दवाच्यता । तेहनइं विषई-सविकल्प-विधिरूप, निर्विकल्प ए २ ज भांगा होइ, पणि अवक्तव्यादि भंग न होइ, जे मार्टि अवक्तव्य शब्दविषय कहिई तो विरोध थाइ । अथवा सविकल्प शब्द-समभिरुढ नयमतई, अनइं निर्विकल्प एवंभूतनयमतई, इम २ भंग जाणवा । अर्थनय प्रथम ४ तो व्यंजनपर्याय मानइ नहीं । ते माटई - ते नयनी इहां प्रवृत्ति नथी । अधिकु अनेकान्त व्यवस्थाथी जाणवू । तदेवमेकत्र विषये प्रतिस्वमनेकनयप्रतिपत्तिस्थले स्यात्कारलाञ्छिततावन्नयार्थप्रकारकसमूहालम्बनबोधजनक एक एव भङ्ग एष्टव्यः व्यञ्जनपर्यायस्थले भङ्गद्वयवद् । यदि च सर्वत्र सप्तभङ्गीनियम एव आश्वास : तदा चालनीयन्यायेन तावन्नयार्थनिषेधबोधको द्वितीयोऽपि भङ्ग : तन्मूलकाश्चान्येऽपि तावत्कोटिका : पंच भङ्गाश्च कल्पनीया : इत्थमेव निराकाक्षसकलभङ्गनिर्वाहाद् इति युक्तं पश्यामः । ए विचार स्याद्वाद पंडितई सूक्ष्म बुद्धि चितमांहि धारवो ।।४-१३ ।।
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