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सप्तभंगी
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दूसरा भांगा होता है । (३) एकवारंइ - उभय विवक्षाइं अवक्तव्य ज. ? पर्याय एक शब्द इ मुख्यरुपइ न कहवाइ ज । - कोई भी पदार्थ में स्वद्रव्यादि से अस्ति स्वरूप और परद्रव्यादि से नास्ति स्वरूप साथ ही रहा हुआ हैं । तथापि एक ही बार में (एक साथ) दोनों नयो की साथ में विवक्षा प्रधानरूप से करके कहना हो तो वह स्वरूप न कहा जाये ऐसा हैं। क्योंकि दोनों (अस्ति नास्ति) पर्याय एक ही शब्द द्वारा प्रधानरूप से नहीं कहे जा सकते है । (या तो क्रमशः प्रधानरूप से कह सकते हैं, या तो एक साथ एक प्रधानरूप से और दूसरा स्वरूप गौण रुप से कह सकते हैं।) इसलिए स्यादवाच्य नामका यह तीसरा भांगा होता हैं । (४) एक अंश स्वरूपइ एक अंश पररुपई, विवक्षीइं “छइ नई नथी" । - किसी भी पदार्थ में पहला एक स्वरूप जो स्वद्रव्यादि से अस्ति आत्मक स्वरूप है उसकी प्रधानरूप से विचारणा करे और बाद में दूसरा एक स्वरूप जो परद्रव्यादि से नास्ति आत्मक है वह सोचे, इस प्रकार दोनों स्वरूप क्रमशः सोचे तब यही विवक्षित पदार्थ का स्वरूप " है और नहीं है" अर्थात् क्रमशः " अस्ति नास्ति" स्वरूप हैं । यह चौथा भांगा हैं । अर्थात् यह “स्यादस्ति स्यान्नास्ति" नामका चौथा भांगा होता है । (५) एक अंश स्वरूपड़, एक अंश युगपत् उभयरूपइ विवक्षी, तिवारइं "छइ अनइ अवाच्य" । उसी तरह से उस पदार्थ में प्रथम एक स्वरूप जो स्वद्रव्यादि से अस्ति (स्वरूप) हैं । यह सोचे (विवक्षा करे) और उसके बाद दूसरा स्वरूप स्वद्रव्यादि से और परद्रव्यादि से इस प्रकार उभयनय युगपत् रूप से (एक साथ) सोचे तो वही पदार्थ " हैं और अवाच्य" बनता है यह " अस्ति अवाच्य” नाम का पाँचवाँ भांगा होता है । (६) एक अंश पररुपइ, एकअंश युगपत् - उभयरूपइ विवक्षीइ, तिवारई " नथी नई अवाच्य" । - इस प्रकार से पदार्थ का परद्रव्यादि से जो नास्तिआत्मक स्वरूप है, वह प्रथम सोचकर उसके बाद दोनों नयो की एक साथ युगपत् रुप से यदि विचारणा की जाये तो वह वस्तु "नास्ति अवाच्य" हैं अर्थात् " नहीं है और अवक्तव्यरूप है” यह छठ्ठा भांगा जानना । (७) एक अंश स्वरूपई, एक (अंश) पररुपई, एक (अंश) युगपत्उभय रुपइ विवक्षीइ, तिवारइ, "छइ, नथी, नई अवाच्य" ।।४ - ९ ।। पदार्थ का स्वद्रव्यादि से जो अस्तिआत्मक स्वरूप है । वह एक स्वरूप प्रथम सोचे, उसके बाद पर द्रव्यादि से जो नास्तिआत्मक स्वरूप है, वह सोचेगे और उसके बाद एकसाथ दोनों नयो से अवाच्य आत्मक जो स्वरूप है, वह सोचे तब वह वस्तु “ हैं, नहीं हैं और अवाच्य" बनता है अर्थात् “अस्ति नास्ति अवाच्य” होता हैं । यह सांतवाँ भांगा है ।
यहाँ जो सात भांगे समजावे वहाँ कोई कोई ग्रंथो में तीसरे चौथे भांगे उल्टे क्रम से भी आते है । अर्थात् तीसरे के स्थान पर चौथा और चौथे की जगह तीसरा भांगा भी दिखाई देता । अर्थ से सब समान ही है । पूज्य महोपाध्यायजी महाराजश्री के यह रास में ही यह चौथी ढाल में ही टबे में जो सात भांगे लिखे है, उससे अतिरिक्त तीसरे चौथे की तबदिलीवाले सात भांगे अब बाद की मूल गाथा में भेदाभेद में आते हैं ।
इस गाथा के टबे में आया हुआ क्रम
बाद की गाथा में आनेवाले क्रम
१. स्यादस्त्येव
२. स्यान्नास्त्येव
३. स्यादवक्तव्यमेव
४. स्यादस्तिनास्त्येव
५. स्यादस्ति अवक्तव्यमेव
६. स्याद्नास्त्यवक्तव्यमेव
७. स्यादस्ति, नास्ति अवक्तव्यमेव
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१. स्याद्भिन्नमेव
२. स्याद् अभिन्नमेव
३. स्याद्भिन्नाभिन्नमेव
४. स्याद् अवक्तव्यमेव
५. स्याद्भिन्नमव्यक्तव्यमेव
६. स्याद् अभिन्नमवक्तव्यमेव
७. स्याद्भिन्नाभिन्नम् अवक्तव्यमेव
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