________________
५०४ / ११२७
षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
अर्थादि आभास :
अर्थाभिधायी शब्दप्रतिक्षेपी अर्थनयाभासः । शब्दाभिधाय्यर्थप्रतिक्षेपी शब्दनयाभासः । अर्पितमभिदधानोऽनर्पितं प्रतिक्षिपन्नर्पितनयाभासः । अनर्पितमभिदधदर्पितं प्रतिक्षिपन्ननर्पिताभासः । लोकव्यवहारमभ्युपगम्य तत्त्वप्रतिक्षेपी व्यवहाराभासः । तत्त्वमभ्युपगम्य व्यवहारप्रतिक्षेपी निश्चयाभासः । ज्ञानमभ्युपगम्य-क्रियाप्रतिक्षेपी ज्ञाननयाभासः । क्रियामभ्युपगम्य ज्ञानप्रतिक्षेपी क्रियानयाभास इति ।
अर्थ : अर्थ का अभिधान करनेवाला और शब्द का निषेध करनेवाला अभिप्राय अर्थनयाभास है ।
शब्द का अभिधान करनेवाला और अर्थ का निषेध करनेवाला शब्दनयाभास है ।
अर्पित अर्थात् विशेष को स्वीकार करनेवाला और अनर्पित अर्थात् सामान्य का निषेध करनेवाला अर्पितनयाभास है।
अनर्पित का स्वीकार करनेवाला और अर्पित का निषेध करनेवाला अनर्पितनयाभास है ।
लोक व्यवहार को स्वीकार करके तत्त्व का निषेध करनेवाला व्यवहाराभास है ।
तत्त्व को स्वीकार करके व्यवहार का निषेध करनेवाला निश्चयाभास है । ज्ञान को स्वीकार करके क्रिया का निषेध करनेवाला ज्ञाननयाभास है ।
क्रिया को स्वीकार करके ज्ञान का निषेध करनेवाला क्रियानयाभास है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org