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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-४
का भेद देखा जाता है । भूतल और घट का जो संयोग है उससे पर्वत और अग्नि का संयोग भिन्न है । यदि भूतल और घट का जो संयोग है वही पर्वत और अग्नि का संयोग हो, तो जब घट और भूतल का संयोग उत्पन्न हो तभी पर्वत और अग्नि का संयोग भी उत्पन्न हो जाय और जब घट भूतल का संयोग नष्ट हो तभी पर्वत और अग्नि का संयोग भी नष्ट हो जाय । संयोग के समान घट आदि धर्मी का सत्त्व आदि धर्मों के साथ एक सम्बन्ध नहीं है । घट अनुयोगी है सत्त्व आदि धर्म प्रतियोगी हैं, इसलिये प्रत्येक प्रतियोगी के साथ सम्बन्ध भी भिन्न है । (५) तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात्, अनेकैरुपकारिभिः क्रियमाणस्योपकारस्यैकस्य विरोधात्। अर्थ : (५) धर्मों के द्वारा किया जानेवाला उपकार भी नियत स्वरूप में होने के कारण अनेक होता है । अनेक उपकारियों से किया जानेवाला उपकार एक नहीं हो सकता । अर्थात् धर्मी को अपने रंग में रंगना धर्मों का उपकार है । इस प्रकार का उपकार धर्मों के द्वारा एक नहीं हो सकता। दंड के कारण पुरुष दंडी कहलाता है । कुंडल उस स्वरूप को नहीं बना सकता जो दण्ड से बनता है दण्ड और कंडल के समान सत्त्व और असत्त्व आदि धर्म भी धर्मा के स्वरूप को एक प्रकार का नहीं बनाते । सत्त्व जिस स्वरूप से अर्थ को व्याप्त करता है, असत्त्व उससे भिन्न स्वरूप के द्वारा व्याप्त करता है, अतः पर्यायनय में उपकार से अभेद वृत्ति नहीं हो सकती । (६) गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं भेदात्, तदभेदं भित्रार्थगुणानामपि गुणिदेशाभेदप्रसङ्गात् । अर्थ : (६) प्रत्येक गुण का गुणिदेश भिन्न भिन्न होता है, यदि उसका अभेद हो तो भिन्न भिन्न पदार्थों के गुणों के गुणिदेश को भी अभिन्न मानना पडेगा । अर्थात् यदि घट के सत्ता आदि गुणों का भेद होने पर भी गुणिदेश एक ही हो, तो वृक्ष आदि के सत्त्व आदि गुणों का भी वही एक देश हो जाना चाहिए । (७) संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गिभेदात, तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात । अर्थ : (७) संसर्गी के भेद से संसर्ग में भी भेद होता है । संसर्ग में भेद न हो, तो संसर्गियों में भी भेद नहीं हो सकता। अर्थात् वृक्ष, जल आदि संसर्गियों के भेद से संसर्ग में भेद देखा जाता है । इसलिए एक धर्मी में अनेक धर्मों का संसर्ग भी भिन्न है । यदि संसर्ग में भेद न हो तो धर्मों में भी भेद नहीं रहना चाहिये । (८) शब्दस्य प्रतिविषयं नानात्वात्, सर्वगुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेरिति कालादिभिभिन्त्रात्मनामभेदोपचारः क्रियते । अर्थ : (८) विषय के भेद से शब्द भी भिन्न हो जाता है, यदि सब गुण शब्द के वाच्य हों, तो समस्त अर्थ एक शब्द के वाच्य हो जाँय । इस प्रकार काल आदि के द्वारा भिन्न स्वरूप वाले धर्मों में अभेद का उपचार किया जाता है । अर्थात् वृक्ष शब्द, वृक्ष रूप अर्थ का वाचक है । नक्षत्र शब्द नक्षत्र रूप अर्थ का वाचक है । अन्य शब्द भी भिन्न अर्थों के वाचक हैं । इसलिए सब धर्म एक शब्द के वाच्य नहीं हो सकते । यदि स्वरूप के भिन्न होने पर भी सब धर्मों का वाचक एक शब्द हो, तो वृक्ष नक्षत्र आदि सब अर्थों का भी वाचक एक शब्द हो जाना चाहिये । इस रीति से काल आदि के द्वारा भिन्न स्वरूपवाले धर्मों में अभेद का उपचार किया जाता है ।
पर्यायार्थिक नय से काल आदि जब अभेद का प्रतिपादन नहीं कर सकते. तब भिन्न धर्मों में भेद होने
व्यवहार किया जाता है ।
एवं भेदवृत्तितदुपचारावपि वाच्याविति ।
अर्थ : इसी प्रकार भेदवृत्ति और भेद के उपचार का भी प्रतिपादन कर लेना चाहिये । अर्थात् विकलादेश में काल आदि के द्वारा भेद का प्रधानरूप से प्रतिपादन होता है अथवा भेद का उपचार होता है। जब पर्यायनय प्रधान होता है, तब द्रव्यार्थ नय के द्वारा भेद प्रधान नहीं हो सकता, इसलिये भेद का उपचार किया जाता है । जब पर्यायनय के अनुसार गुण आदि अभेद को असंभव कर देते हैं - तब भेद मुख्य हो जाता है ।
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