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सप्तभंगी
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और भेद प्रधान होता है । (८) अष्टम प्रकार का निरूपण - स एव चास्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एवाशेषानन्तधर्मात्मकस्यापीति शब्देनाभेदवृत्तिः। अर्थ : जो अस्ति शब्द अस्तित्व धर्मात्मक अर्थात् अस्तित्व स्वरूप वस्तु का वाचक है, वही अन्य अनन्तधर्मों के स्वरूप में प्रतीत होनेवाली वस्तु का वाचक है, यह शब्द से अभेद वृत्ति है ।
• प्रत्येक प्रकार में अधिक स्पष्टता करने के लिए बताते है कि - पर्यायार्थिकनयगुणभावेन द्रव्यार्थिकप्राधान्यादुपपद्यते । अर्थ : पर्यायार्थिक नय के गौण होने से और द्रव्यार्थिक नय के प्रधान होने से यह अभेद होता है।
कहने का आशय यह है कि, द्रव्य पर्यायों में अनुगत रहता है । पृथ्वी द्रव्य है - वह इंट-पत्थर-घट आदि में अनुगत होने से अभिन्न है। इंट, पत्थर आदि का आकार आदि भिन्न रहता हैं । पृथ्वीरूप से ये सब अभिन्न हैं, इसी प्रकार द्रव्यों में जो अनके धर्म रहते हैं, वे द्रव्य की अपेक्षा से अभिन्न हैं । द्रव्य का स्वरूप जब मुख्य रहता है, तब काल आदि के कारण समस्त धर्मों का अभेद प्रतीत होता है । इस दशा में पर्याय गौण होते हैं, इसलिये धर्मा का भेद मुख्यरूप से नहीं प्रतीत होता ।
द्रव्यार्थिक-गुणभावेन पर्यायार्थिकप्राधान्ये तु न गुणानामभेदवृत्तिः सम्भवति । अर्थ : द्रव्यार्थिकनय के गौण होने पर और पर्यायार्थिकनय के प्रधान होने पर गुणों की अभेदवृत्ति नहीं हो सकती।
कहने का सार यह है कि, काल आदि के द्वारा एक धर्म के साथ अन्य अशेष धर्मों का भेद प्रतीत होता है, फिर भी अभेद का उपचार करके एक शब्द एक काल में अनन्तधर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करता है - अत: प्रत्येक भङ्ग सकलादेश हो जाता है। काल आदि इस दशा में अभेद का प्रतिपादन जिन कारणों से नहीं करते उनका निरूपण करने के लिए कहते हैं -
(१) समकालमेकत्र नानागुणानामसम्भवात्, सम्भवे वा तदाश्रयस्य भेदप्रसङ्गात् । अर्थ : (१) एक काल में एक धर्मी में अनेक गुण नहीं हो सकते । यदि हो सके तो उनके आश्रय अर्थ में भी भेद हो जाना चाहिये । यहाँ तात्पर्यार्थ यह है कि, पर्यायों को प्रधान मानकर गुणी का विचार किया जाय तो जिस काल में एक अर्थ में सत्त्व है उसी काल में असत्त्व नहीं रह सकता । एक काल में सत्त्व और असत्त्व दोनों रहें तो उनके आश्रय भिन्न हो जाने चाहिये। गोत्व और अश्वत्व दो भिन्न धर्म हैं । दोनों के आश्रय गौ और अश्व भिन्न हैं । एक काल में रहने के कारण गोत्व और अश्वत्व का अभेद नहीं होता । (२) नानागुणानां सम्बन्धिन आत्मस्वरूपस्य च भिन्नत्वात्, अन्यथा तेषां भेदविरोधात्, अर्थ : (२) अनेक गुणों का सम्बन्धी आत्मरूप भी भिन्न होता है यदि भिन्न न हो, तो गुणों में भेद - अर्थात् पुष्प आदि गुणी अर्थों में रूप रस आदि गुणों का स्वरूप परस्पर भिन्न होता है । यदि स्वरूप भिन्न न हो तो रूप आदि में भेद नहीं होना चाहिये । रूप आदि के समान सत्त्व और असत्त्व आदि धर्म भी अपने अपने स्वरूप से भिन्न हैं। यदि इनका स्वरूप भिन्न न हो, तो सत्त्व असत्त्वरूप से और असत्त्व सत्त्वरूप से प्रतीत होना चाहिये । (३) स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात, अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् । अर्थ : (३) गुणों का आश्रय अर्थ भी भिन्न भिन्न है, यदि भिन्न न हो तो वह नाना गुणों का आश्रय नहीं हो सकता। (४) सम्बन्धस्य च सम्बन्धिभेदेन भेददर्शनात्, नानासम्बन्धिभिरेकत्रैकसम्बन्धाघटनात् । अर्थ : (४) सम्बंधियों के भेद से सम्बन्ध का भेद भी देखा जाता है । अनेक सम्बन्धी एक स्थान में एक सम्बन्ध की रचना नहीं कर सकते । अर्थात् प्रतियोगी और अनुयोगी के भेद से सम्बन्ध
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