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षड्. समु. भाग - २,
परिशिष्ट- ४
हो सकता है। अब जो लोग वस्तु के असत्रूप होने पर आक्षेप करते हैं यदि पर द्रव्य आदि एक अर्थ में नहीं है तो असत्त्व के साथ अर्थ का सम्बन्ध हो सकता है पर जिनका असत्त्व है उन द्रव्य आदि के साथ तो सम्बन्ध नहीं हो सकता घट का यदि पट के अभाव के साथ सम्बन्ध हो तो पट के साथ सम्बन्ध नहीं प्रतीत होता । वे भी युक्त नहीं कहते । क्योंकि, पर द्रव्य आदि को अपेक्षा से जब घट का असत्त्व कहा जाता है तब पर द्रव्य आदि की अपेक्षा आवश्यक होती है, इसलिये पर द्रव्य आदि भी सत् अर्थ के लिये उपयोगी हो जाते हैं । इस प्रकार की विवक्षा में पट भी सत् घट का सम्बन्धी हो जाता है । पट की अपेक्षा से घट पटरूप से असत् कहा जाता है । इसके अतिरिक्त, जब तक पर द्रव्य-क्षेत्रादि का ज्ञान न हो, तब तक स्व- द्रव्य क्षेत्र आदि का स्व-रूप में ज्ञान नहीं हो सकता । पर की अपेक्षा से स्व का व्यवहार होता है, स्व के व्यवहार में कारण होने से पर द्रव्य आदि भी अर्थ के सम्बन्धी हैं । वस्तु केवल 'सत्रूप नहीं है, असत्रूप भी है। प्रत्येक वस्तु का स्वरूप नियत है । नियत स्वरूप का ज्ञान तब तक नहीं हो सकता जब तक एक अर्थ भिन्न अर्थों के अभाव के रूप में प्रतीत न हो । जब तक घट, पट आदि के रूप में असत् न प्रतीत हो तब तक घट का यथार्थ रूप से ज्ञान नहीं हो सकता । इसलिये पट आदि के रूप में असत्त्व भी घट
धर्म है । धर्म के साथ धर्मी का भेदाभेद है, इसलिये घट असत् स्वरूप भी है। मुख्य रूप से किसी भी अर्थ का असत्त्व पर द्रव्य आदि की अपेक्षा से प्रतीत होता है । इसलिये दूसरा भङ्ग इसी रीति से असत्त्व का प्रतिपादन करता है। यहाँ पर कई लोग आक्षेप करते हैं कि असत्त्व अभावरूप है, अभाव प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा करता है । घट का ज्ञान न हो तो घट के अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता, परन्तु भाव का ज्ञान प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता । घट को घटाभाव के ज्ञान की अपेक्षा नहीं है । जब घट के साथ नेत्र का सम्बन्ध होता है, तभी घट का स्वरूप प्रकट हो जाता है, घटाभाव के ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती । इन लोगों का आक्षेप युक्त नहीं है । अर्थ का ज्ञान दोनों प्रकार से होता है अपेक्षा से और अपेक्षा के बिना । अभाव का ज्ञान प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा करता है परन्तु जब अभाव का ज्ञान प्रमेय रूप से होता है तब प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती । घट हो अथवा पट, वृक्ष हो वा लता हो, कोई भी हो, सभी अर्थ प्रमेय हैं प्रमेय रूप से ज्ञान का विषय होने के लिये वृक्ष लता की वा लता वृक्ष की अपेक्षा नहीं करती। प्रमेयत्व सब वस्तुओं का सामान्य धर्म है । भावों के समान अभाव भी ज्ञान के विषय हैं - अतः प्रमेय हैं । प्रमेय रूप से वृक्ष आदि भाव जिस प्रकार किसी प्रतियोगी की अपेक्षा नहीं करते, इसी प्रकार अभाव भी प्रमेयरूप से किसी प्रतियोगी की अपेक्षा नहीं करते । अभाव अभावरूप से प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा करते हैं। भाव भी अपने अभाव के अभावरूप है, इस रूप में भाव भी अपने अभाव की अपेक्षा करते हैं । घट घटाभाव का अभाव है, इसलिये घटाभाव के ज्ञान की अपेक्षा करता है ।
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यह तो हुई स्वाभावाभाव रूप में अर्थात् अपने अभाव के अभाव के रूप में प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा भाव रूप में भी सत्त्व रूप के लिए स्वद्रव्य क्षेत्र आदि की अपेक्षा अनुभव सिद्ध है । बिना द्रव्य आदि के किसी भी अर्थ का स्वरूप प्रतीत नहीं होता, इसलिये प्रथम भङ्ग सत्त्व को और द्वितीय भङ्ग असत्त्व को अपेक्षा से प्रकट करता है । इस दशा में सत्त्व असत्त्व का और असत्त्व सत्त्व का सर्वथा विरोधी नहीं रहता ।
असत्त्व धर्म की तात्त्विकता:
वस्तु का असत्त्व धर्म भी सत्त्व धर्म की तरह तात्त्विक है, यह बताने के लिए युक्ति सह कहते है कि,
न चासत्त्वं काल्पनिकम् सत्त्ववत् तस्य स्वातन्त्र्येणानुभवात्, अन्यथा विपक्षासत्त्वस्य तात्त्विकस्याभावेन हेतोस्त्रैरूप्यव्याघातप्रसङ्गात् ।
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