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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-४ ___ तत्र प्रमाणप्रतिपत्रानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा यौगपद्येन प्रतिपादक वचः सकलादेशः। नयविषयीकृतस्य वस्तुधर्मस्य भेदवृत्तिप्राधान्याद् भेदोपचाराद्वा क्रमेणाभिधायकवाक्यं विकलादेशः। ___ अर्थ : प्रमाण से सिद्ध अनन्त धर्मोवाली वस्तु का काल आदि के द्वारा अभेद की प्रधानता से अथवा अभेद के उपचार से एक काल में प्रतिपादन करनेवाला वचन सकलादेश कहा जाता है । नय के विषयभूत वस्तु के धर्म का भेदवृत्ति की प्रधानता से अथवा भेद के उपचार से क्रम के साथ प्रतिपादक वाक्य विकलादेश कहा जाता है ।
यहाँ पर कहने का मतलब यह है कि, प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म है उन सब का एक में जो प्रतिपादन करे वह वचन सकलादेश है । साधारण रूप से एक शब्द एक धर्म का प्रतिपादन करता है । यदि एक एक धर्म के लिये एक एक शब्द का प्रयोग किया जाय तो अनन्त धर्मों के लिये अनन्त शब्दों को प्रयोग करना पडेगा । परन्तु यह हो नहीं सकता, इसलिये एक धर्म का अन्य धर्मों के साथ अभेद मान लिया जाता है । मुख्यरूप से एक धर्म एक शब्द का वाच्य है। पर अभेद हो जाने से अन्य धर्म भी वाच्य हो जाते हैं । इस प्रकार एक शब्द अनन्त धर्मों का प्रतिपादक हो जाता है। इस प्रकार अनन्त धर्मों का प्रतिपादक होने पर प्रत्येक भङ्ग सकलादेश हो जाता है । सकलादेश को प्रमाण वाक्य कहते हैं । वाच्य एक धर्म साथ अन्य धर्मो का अभेद न मानकर जब एक धर्म का प्रतिपादन होता है, तब प्रत्येक भङ्ग विकलादेश कहा जाता है । वस्तु के एकअंश का प्रतिपादक होने के कारण उसको नय वाक्य कहते हैं। काल आदि के द्वारा किसी एक धर्म का अन्य धर्मों के साथ अभेद दो प्रकार से किया जाता है, प्रधानभाव से और उपचार से । इस प्रधानभाव और उपचार का स्वरूप महोपाध्याय श्री यशोविजयजी ने शास्त्रवार्तासमुच्चय की व्याख्या स्याद्वादकल्पलता में इस प्रकार बताया है
१-अभेदवृत्तिप्राधान्यम्-द्रव्यार्थिकनयगृहीतसत्ताधभिन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुशक्तिकस्य सदादिपदस्य कालाद्यभेदविशेषप्रतिसंधानेन पर्यायार्थिकनयपर्यालोचनप्रादुर्भवच्छक्यार्थबाधप्रतिरोधः । अभेदोपचारश्चपर्यायार्थिकनयगृहीतान्यापोहपर्यवसितसत्तादिमात्रशक्तिकस्य तात्पर्यानुपपत्त्या सदादिपदस्योक्तार्थे लक्षणा ।
इसके अनुसार द्रव्यार्थिक नय से जब सत्ता आदि किसी एक धर्म का ज्ञान होता है । तब उससे अभिन्न अनन्तधर्मात्मक वस्तु में सत् आदि पद की शक्ति होती है । काल आदि के द्वारा अभेद मानने के कारण सत् आदि पद से अन्य धर्म भी वाच्य प्रतीत होते हैं । इस दशा में पर्यायार्थिक नय के विचार से अन्य धर्मों की प्रतीतिरूप शक्य अर्थ में जो रुकावट
सम्बन्धः स एवानन्तधर्माणामपीति सम्बन्धेनाऽभेदवृत्तिः । य एव चोपकारोऽस्तित्वस्य स्वानुरक्तत्वकरणं-स्ववैशिष्ट्यसम्पादनंस्वप्रकारकर्मिविशेष्यकज्ञानजनकत्वपर्यवसन्नं, (अस्तित्वस्य स्वानुरक्तत्वकरणं हि अस्तित्वप्रकारकपटविशेष्यकज्ञानजनकत्वम्) स एवोपकारोऽनन्तधर्माणामपीति उपकारेणाभेदवृत्तिः । य एव गुणिनः सम्बन्धी देशः क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वस्य स एवान्यधर्माणामपीति गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तिः । य एव चैकवस्त्वात्मनाऽस्तित्वस्य संसर्गः स एवाऽपरधर्माणामपीति संसर्गेणाभेदवृत्तिः । ननु सम्बन्धसंसर्गयोः को विशेषः ? इति चेद् उच्यते-द्रव्य-पर्याययोः कथञ्चिद् भिन्नाभिन्नत्वापरपर्याय-कथञ्चित्तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः संसर्गश्च, तत्र यदा अभेदस्य प्राधान्यं भेदस्य च गौणत्वं विवक्ष्यते तदा सम्बन्धः । यदा तु भेदस्य प्राधान्यमभेदस्य च गौणत्वं विवक्ष्यते तदा संसर्ग इत्युच्यते । य एवास्तीतिशब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एव अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनो वाचक इति शब्देनाभेदवृत्तिः । एवं कालादिभिरष्टविधाभेदवृत्तिः पर्यायार्थिकनयस्य गुणभावे द्रव्यार्थिकनयप्राधान्यादुपपद्यते । द्रव्यार्थिकनयगुणभावे पर्यायार्थिकनयप्राधान्ये तु न गुणानामभेदवृत्तिः सम्भवतीति कालादिभिर्भिन्नानामपि गुणानामभेदोपचारः क्रियते इति । एवं कालादिभिरभेदवृत्त्या अभेदोपचारेण वा यौगपद्येनानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रतिपादकं वाक्यं सकलादेश इत्युच्यते ।।४४।।। अधुना नयवाक्यस्वभावत्वेन नयविचारावसरलक्षणीयस्वरूपमपि विकलादेशं सकलादेशस्वरूपनिरूपणप्रसङ्गेनात्रैव लक्षयन्तितद्विपरीतस्तु विकलादेशः ।।४-४५।। नयविषयीकृतस्य वस्तुधर्मस्य यदा कालादिभिर्भेदविवक्षा क्रियते तदा एकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रतिपादने सामर्थ्याभावाद् भेदवृत्त्या भेदोपचारेण वा क्रमेण यदभिधायकं वाक्यं स विकलादेश इत्यर्थः ।।४५।।
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