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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-४
किया जाय तो घट आदि सभी धर्मियों में सत्त्व आदि के प्रकाशक भङ्गो के प्रयोगों का ज्ञान सरलता से हो सकता है । इस कारण सब को धर्मी बनाकर प्रथम भङ्ग का निरूपण किया । अब उदाहरण देते है -
उदा.-स्यात् कथञ्चित् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षयेत्यर्थः । अर्थ : स्यात् का अर्थ है कथञ्चित् । अपने (स्व) द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा से, यह अर्थ है ।
कहने आशय यह है कि, स्यात् अनेकान्त का प्रकाशक अव्यय है । यह 'तिङन्त' पद नहीं है किन्तु तिङन्त के समान है और अपेक्षा का बोध कराता है । अपेक्षा के द्वारा जब सत्त्व धर्म का प्रतिपादन होता है तब प्रथम भङ्ग होता है । अपेक्षा एक प्रकार का मानस ज्ञान है । भावों के कुछ धर्म परस्पर अपेक्षा नहीं रखते और कुछ धर्म परस्पर अपेक्षा रखते हैं । रूप रस आदि परस्पर सापेक्ष नहीं हैं । सत्त्व और असत्त्व आदि अपेक्षा से प्रतीत होते हैं, इसलिए अपेक्षा के द्वारा इनका प्रतिपादन भङ्गरूप हो जाता है । प्रथम भंग के स्वरूप की अधिक स्पष्टता करते हुए कहते है कि, __ अस्ति हि घटादिकं द्रव्यत: पार्थिवादित्वेन, न जलादित्वेन । क्षेत्रत: पाटलिपुत्रकादित्वेन, न कान्यकुब्जादित्वेन। कालत: शैशिरादित्वेन, न वासन्तिकादित्वेन । भावत: श्यामादित्वेन, न रक्तादित्वेनेति ।
अर्थ : घट आदि द्रव्य की अपेक्षा से पार्थिव आदि स्वरूप के द्वारा है, जल आदि रूप से नहीं है । क्षेत्र की अपेक्षा से पाटलिपुत्र में है, कान्यकुब्ज में नहीं है । काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु में है, वसन्तऋतु में नहीं है । भाव की अपेक्षा से श्याम आदि रूप में है, रक्त आदि रूप में नहीं है । __ कहने का फलितार्थ यह है कि, प्रत्येक द्रव्य का कोई उपादान कारण होता है और वह किसी देश में और किसी काल में होता है । जब द्रव्य प्रतीत होता है तब अपने गुणों और पर्यायों के साथ प्रतीत होता है । गुण
और पर्याय के साथ अर्थ का प्रतीत होनेवाला स्वरूप 'भाव' है । जब भी कोई अर्थ प्रतीत होता है तब उपादान कारण देश काल और अपने गुणों और पर्यायों के साथ प्रतीत होता है । मिट्टी का घडा जब दिखाई देता है तब उपादान कारण मिट्टी भी दिखाई देती है । वह किसी न किसी देश में और किसी न किसी काल में प्रतीत होता है । कोई गुण और पर्याय भी उसका दृष्टि गोचर होता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के बिना किसी अर्थ का स्वरूप विचार में भी नहीं लाया जा सकता । अर्थ के साथ अपरिहार्यरूप से रहनेवाले द्रव्य, क्षेत्र आदि अर्थ के अपने होते हैं । जो द्रव्य क्षेत्र आदि स्व नहीं हैं अर्थात् अपने नहीं है उनकी अपेक्षा से अर्थ सत् नहीं होता । घट जब है तब अपने उपादान पृथिवी के साथ रहेता है, पृथ्वी के बिना घट नहीं रह सकता । जल घट का उपादान कारण नहीं है इसलिए जलरूप से घट सत् नहीं हैं। जब घट किसी एक स्थान में रहता है तब अन्य स्थान में वह नहीं रहता । अन्य स्थान की अपेक्षा से वह असत् है । जब घट वर्तमान काल में प्रतीत होता है तब अनागत अथवा अतीत काल में प्रतीत नहीं होता । वर्तमान काल की अपेक्षा से घट सत् होता हुआ भी अतीत और अनागत में असत् है । इसी प्रकार दिखाई देने के समय पर यदि घट श्याम हो तो श्याम स्वरूप से ही सत् है । पीत अथवा रक्त रूप से सत् नहीं है । उस काल में श्याम रूप के साथ ही घट का अभेद है । उपादान पृथिवी के साथ और श्याम आदि गुणों के साथ घट का भेदाभेद है । देश और काल के साथ भेदाभेद तो नहीं है किंतु संयोग सम्बन्ध है । उपादान और गुणों के समान देश और काल के साथ भेदाभेद न होने पर भी अवश्यभावी संयोग सम्बन्ध है । इन नियत संबंधियों के साथ ही अर्थ प्रतीत होता है इसलिए इन की अपेक्षा से सत् है । जो द्रव्य क्षेत्र आदि पर हैं, उनके साथ प्रतीति नहीं होती इसलिए उनकी अपेक्षा से असत् है ।
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