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षड्. समु. भाग- २, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ मार्गणाओं में मोक्ष की प्ररूपणा : मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रसकाय, भव्य, संज्ञि, यथाख्यात चारित्र, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहार, केवलदर्शन और केवल ज्ञान में मोक्ष हैं और शेष में नहीं हैं ( (66)
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पूर्वोक्त १० से(67) शेष रही हुइ कषाय वेद योग और लेश्या, इन चार मार्गणा में मोक्ष होता ही नहीं है । क्योंकि अकषायी, अवेदी, अयोगी और अलेशी अवस्थावाले जीव को ही मोक्ष होता हैं अर्थात् ४ मूल और ५२ उत्तर भेदो में मोक्ष की मार्गणा करने से विचारणा नहीं होती है अर्थात् मूल तथा उत्तर दस मार्गणा में ही मोक्ष की मार्गणा होती हैं ।
यहाँ सार यह है कि - मोक्ष में जाने की संसारी जीव की अंतिम ( १४ वे गुणस्थान की शैलेशी) अवस्था में जो जो मार्गणा विद्यमान हो उस उस मार्गणा में मोक्ष हैं, ऐसा कहा जाता है और शेष मार्गणाओं में मोक्ष का अभाव माना जाता है तथा संज्ञित्व और भव्यत्व यद्यपि अयोगी गुणस्थान पर अपेक्षा भेद से शास्त्र में कहा नहीं है तो भी यहाँ संज्ञिपन और भव्यत्व अपेक्षापूर्वक ग्रहण किया है, ऐसा जानना ।
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(२-३) द्रव्य प्रमाण और क्षेत्र अनुयोग द्वार : सिद्धो के द्रव्य प्रमाण द्वार में अनन्त जीव द्रव्य हैं; लोक के असंख्यात वें भाग में एक और सर्व सिद्ध होते हैं ( (68)
सिद्ध के जीव अनन्त है, क्योंकि जघन्य से १ समय के अन्तर पर और उत्कृष्ट से छः मास के अन्तर पर अवश्य कोइ जीव मोक्ष में जाये, ऐसा नियम है, उपरांत एक समय में जघन्य १ तथा उत्कृष्ट से १०८ जीव मोक्ष में जाये, यह भी नियम है और इस प्रकार से अनन्तकाल व्यतीत हो गया हैं । इसलिए सिद्ध जीव अनन्त है । ( अन्यदर्शनी जो सदाकाल ईश्वर एक ही हैं, ऐसा कहते हैं, वह इस दूसरे द्वार की प्ररूपणा से असत्य हैं, ऐसा जानना ।)
तथा क्षेत्र द्वार सोचने से सिद्ध के जीव लोक के असंख्यातवें भाग जितने क्षेत्र में रहे हैं, क्योंकि एक सिद्ध की अवगाहना जघन्य से १ हाथ ८ अंगुल हो और उत्कृष्ट से १ कौस (२।। किलोमीटर) का छठ्ठा भाग अर्थात् ३३३ धनुष ३२ अंगुल अर्थात् १३३३ हाथ और ८ अंगुल इतनी ऊँची अवगाहना होती हैं और इस क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग जितना ही है, इसलिए एक-एक सिद्ध भी लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए है । तथा सर्व सिद्ध के आश्रयी विचार करे, तो ४५ लाख योजनवाली सिद्धशिला पृथ्वी के उपर एक योजन के अन्त में ४५ लाख योजन तिर्यक् (तिच्छे) विस्तारवाले १/६ (एक षष्ठमांश) कोश उर्ध्व प्रमाण जितने आकाश क्षेत्र में सिद्ध जीव अलोक की आदि ओर लोक के अंत को स्पर्श कर रहे हुए हैं । ये सर्व क्षेत्र भी लोक के असंख्यातवें भाग जितना हैं, इसलिए सर्व सिद्ध भी लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हैं, इस अनुसार दो तरह से क्षेत्रद्वार कहा । ( अन्य दर्शनी जो कहते हैं कि ईश्वर एक ही है और वह भी इस सचराचर (स स्थावर तथा जड चेतनमय) जगत में सर्वस्थान में व्याप्त है, वह इस तीसरे द्वार की प्ररूपणा से असत्य है, ऐसा जानना ।)
(४-५-६) स्पर्शना, काल और अन्तर अनुयोग द्वार : स्पर्शना अधिक हैं, एक सिद्ध की अपेक्षा से सादि अनंतकाल हैं । गिरने का (पुनः संसार में आने का अभाव होने से सिद्धो में अंतर नहीं हैं । (69)
66. नरगइ पणिंद तस भव, सन्नि अहक्खाय खइअसम्मत्ते । मुक्खोऽणाहार केवलदंसणनाणे, न सेसेसु ।। ४६ ।। ( नव. प्र. ) 67. श्री अभयदेव सूरि रचित नवतत्त्व भाष्य में १४ मार्गणा में मोक्षपद की प्ररूपणा अलग रूप से कही है, वह इस प्रकार से - तत्थ य सिद्धा पंचमगइए, नाणे य दंसणे सम्मे । संतित्ति सेसएसु, पएस सिद्धे निसेहिज्जा । । ११२ ।।
वहाँ सिद्ध पंचम गति में (सिद्धि गति में) तथा केवलज्ञान, केवल दर्शन और क्षायिक सम्यक्त्व इन चार मार्गणा में सत् - विद्यमान हैं और इसलिए शेष १० मूल मार्गणाओं में और ५८ उत्तर मार्गणा में सिद्धपन का निषेध जानना । यह सत्पद् प्ररूपणा भी अपेक्षा
भेद से यथार्थ हैं, क्योंकि यहाँ सिद्धत्व अवस्था के आधार पर मार्गणाओं की प्ररूपणा इस प्रकार ही संभवित हैं ।
68. दव्वपमाणे सिद्धाणं जीवदव्वाणि हुंतिऽणंताणि । लोगस्स असंखिज्जे, भागे इक्को य सव्वे वि 69. फुसणा अहिया कालो, इग सिद्ध पडुच्च साइओणंतो पडिवायाभावाओ सिद्धाणं अंतरं नत्थि
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।। ४७ ।। ( नव. प्र. ) ।। ४८ ।। ( नव. प्र. )
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