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षड् समु. भाग-२, परिशिष्ट - ३, जैनदर्शन में नयवाद वर्तमानविषयावलम्बिन ऋजुसूत्रात्कालत्रितयवर्त्यर्थजातावलम्बी व्यवहारो बहुविषय: 1 (87) (जैनतर्कभाषा) अर्थ : ऋजुसून केवल वर्तमान काल के विषय का ग्रहण करता है और व्यवहार तीन काल के अर्थो का प्रतिपादन करता है, इसलिए व्यवहार का विषय ऋजुसूत्र से अधिक है ।
कहने का मतलब यह है कि, लोगों का व्यवहार किसी एक काल को लेकर नहीं चल सकता । भूतकाल में जिन अर्थों के द्वारा सुख दुःख का अनुभव हो चुका है उन अर्थों को वर्तमान काल में देखकर अनुमान होता है कि, ये अर्थ पहले जिस प्रकार से सुख दुःख उत्पन्न करते थे इसी प्रकार अब भी और आगामी काल में भी सुखादि उत्पन्न कर सकते हैं । यह समझकर लोग सर्व प्रकार का व्यवहार करते हैं । यदि भूतकाल के साथ अर्थ का सम्बन्ध किसी प्रकार से भी न मान जाय तो कोई भी व्यवहार नहीं चल सकता । केवल वर्तमानकाल में अर्थ की सत्ता मानी जाय तो भोजन से तृप्ति होगी और पानी पीने से प्यास दूर होगी इतना निश्चय भी नहीं हो सकता । भूतकाल में भोजन आदि के द्वारा तृप्ति का अनुभव करने के कारण लोग भूख-प्यास के होने पर भोजन आदि को लेते हैं । आगामी काल में इन वस्तुओं से सुख की प्राप्ति और दुःख दूर हो सकेगा यह समझ कर वर्तमान में धन-वस्त्र आदि का संचय किया जाता है । इस प्रकार व्यवहार का तीन कालों के अर्थों के साथ सम्बन्ध है ।
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दूसरी ओर ऋजुसूत्र वर्तमानकाल में अर्थ का जो स्वरूप है उसका प्रधान रूप से आश्रय लेता है । अर्थ के भूत और भावी स्वरूप की उपेक्षा करता है । देश और काल के भेद से अर्थ कभी सुख और कभी दुःख के उत्पादक बन जाते हैं। भूतकाल की अवस्था को प्रधान रूप से ध्यान में लाया जाय तो मनुष्य सुख चाहता हुआ भी आपत्ति में गिर जायेगा । विशेष प्रकार के काल में ऋजुसूत्र नय के अनुसार वर्तमान का विचार मुख्य रूप से करना पडता है । व्यवहार और ऋजुसूत्र का विरोध तब नहीं रहता जब भिन्न अपेक्षाओं का विचार किया जाता है । तीन कालों के अर्थ के साथ सम्बन्ध होने से व्यवहार का विषय बहुत है और केवल वर्तमान के साथ प्रधानरूप से सम्बन्ध होने के कारण ऋजुसूत्र का विषय अल्प है । अब शब्दनय से ऋजुसूत्र नय के विषय बहुत है, वह स्पष्ट करते है -
कालादिभेदेन भिन्नार्थोपदेशकाच्छब्दात्तद्विपरीतवेदक ऋजुसूत्रो बहुविषय: । ( 88 ) ( जैनतर्कभाषा)
अर्थ : काल आदि के भेद से पदार्थ को भिन्न माननेवाले शब्द नय की अपेक्षा से ऋजुसूत्र नय वस्तु के उस स्वरूप को प्रकाशित करता है जो शब्द नय का प्रतिकूल है इसलिए बहुत विषय वाला है ।
कहने का फलितार्थ यह है कि, ऋजुसूत्र वर्तमान काल के अर्थ का प्रधान रूप से निरूपण करता है परन्तु भूत और भावी काल के साथ सम्बन्ध की उपेक्षा करता है । वह काल के भेद से अर्थ को भिन्न नहीं मानता। इसके विपरीत शब्द नय, काल और कारक आदि के भेद से अर्थ में भेद मानता है । एक ही वृक्ष अतीतकाल के साथ जब सम्बन्ध रखता है तब वह भिन्न है और जब वह वर्तमान में है तब वह वृक्ष वही नहीं है जो भूतकाल में था । काल ही नहीं कारक आदि के भेद से भी शब्दनय अर्थ को भिन्न मानता है इसलिए शब्द नय का विषय अल्प है और तीन काल के साथ रहेनवाले अर्थों का प्रकाशक होने के कारण ऋजुसूत्र का विषय बहुत है । इस विषय की अधिक स्पष्टतायें करते हुए बताते है कि, 87. व्यवहारात् ऋजुसूत्रो बहुविषय इति विपर्यासं निरस्यन्ति वर्तमानविषयादृजुसूत्राद् व्यवहारस्त्रिकालविषयावलम्बित्वादनल्पार्थः
।।७-४९।।
ऋजुसूत्रो वर्तमानक्षणस्थायिनः पदार्थान् प्रकाशयतीत्यल्पविषयः, व्यवहारस्तु कालत्रयवर्तिपदार्थजातमवलम्बत इति बहुविषयः ।। ४९ ।।
(प्र.न. तत्त्वा.)
88. ऋजुसूत्राच्छब्दो बहुविषय इत्याशङ्कामपसारयन्ति - कालादिभेदेन भिन्नार्थोपदर्शिनः शब्दादृजुसूत्रस्तद्विपरीतवेदकत्वाद् महार्थः । । ७-५० ।। शब्दनयो हि कालादिभेदेन पदार्थभेदमङ्गीकरोतीत्यल्पविषयः, ऋजुसूत्रस्तु कालादिभेदेप्यभिन्नमर्थं प्रदर्शयतीत्यनल्पार्थः । । ५० ।। (प्र.न.तत्त्वा.)
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