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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
अर्थ : धर्मी और धर्म आदि के भेद का एकान्त रूप से प्रतिपादन करनेवाला अभिप्राय नैगमाभास है । जिस प्रकार नैयायिक और वैशेषिक का दर्शन ।
आत्मा में सत्त्व और चैतन्य दो धर्म हैं । आत्मा के साथ इन दोनों का अभेद है । इसलिए इन दोनों धर्मों का भी परस्पर कथंचित् अभेद है । जो इन दोनों को सर्वथा भिन्न कहता है, वह प्रमाण से विरुद्ध होने के कारण नैगमाभास है। न्याय और विशेषिक के अनुसार धर्म और धर्मी आदि में अत्यंत भेद है । उनके अनुसार अवयव और अवयवी का, गुण
और गुणी का, क्रिया और क्रियावत् का, जाति और व्यक्ति का अत्यंत भेद है । परन्तु यह मत प्रमाणों से विरुद्ध है । गौ और अश्व में जिस प्रकार भेद है, इस प्रकार घट और कपाल आदि अवयव और अवयवी में, घट गुणी और उसके रूप आदि गुण में, भेद का अनुभव नहीं होता । इन सब में परस्पर भेद और अभेद है। ___ संग्रहाभास : सत्ताऽद्वैतं स्वीकुर्वाण: सकलविशेषान्निराचक्षाण: संग्रहाभास:(94), यथाऽखिलान्यद्वैतवादिदर्शनानि सांख्यदर्शनं च । (जैनतर्कभाषा)
अर्थ : केवल सत्ता को स्वीकार करने वाला और समस्त विशेषों का निषेध करनेवाला संग्रहाभास है । जिस प्रकार समस्त अद्वैतवादी दर्शन और सांख्य दर्शन ।
केवल सत्त्व है, विशेषों की सत्ता वास्तव में नहीं है, इस प्रकार का मत जो मानते हैं, वे अद्वैतवादी हैं । अद्वैतवादी अनेक प्रकार के हैं । ये सब एकान्तरूप से सामान्य धर्म का प्रतिपादन करते हैं, अतः मिथ्या हैं । वृक्ष सूर्य चन्द्र आदि में, रूप रस आदि में और अन्य अर्थों में सत्ता प्रतीत होती है, परन्तु वह बिना विशेष के नहीं प्रतीत होती । दोनों की प्रतीति समान है । अतः एकान्त रूप से सत्त्व को स्वीकार करके विशेषों का निषेध करना अयुक्त है । सत्य अर्थ भी एकान्त का आश्रय लेकर जब प्रमाणों से सिद्ध अन्य अर्थों का निषेध करता है तो वह मिथ्या हो जाता है । अद्वैतवादी भी किसी एक वस्तु को लेकर उससे भिन्न अर्थों को मिथ्या कहने लगते हैं ।
सत्ता के अद्वैत के समान कुछ लोग ज्ञान के अद्वैत को और कुछ लोग ब्रह्म के अद्वैत को और कुछ लोग शब्द के अद्वैत को मानते हैं । इन में ज्ञान के अद्वैत को माननेवाले विज्ञानवादी बौद्ध हैं । इन लोगों के अनुसार जब भी अर्थों का ज्ञान होता है तब ज्ञान अवश्य विद्यमान होता है । ज्ञान के बिना किसी भी अर्थ का प्रकाशन नहीं होता । ज्ञान दो प्रकार का है, एक सत्य ज्ञान जिसके द्वारा प्रकाशित अर्थ प्राप्त हो सकते हैं । पुस्तक को देखकर पुस्तक का ज्ञान होता है । उसको लेकर पढा जा सकता है । यह ज्ञान सत्य ज्ञान है, पुस्तक और पुस्तक का ज्ञान दोनों सत्य हैं । प्रकाश के समान ज्ञान अर्थों का प्रकाशक है । प्रकाश और उसके द्वारा प्रकाशित अर्थ जिस प्रकार सत्य हैं इसी प्रकार ज्ञान के द्वारा प्रकाशित अर्थ और ज्ञान सत्य हैं, कभी कभी अर्थ के न होने पर भी ज्ञान हो जाता है । शुक्ति होती है और ज्ञान रजत का होता है, इस ज्ञान के अनन्तर रजत की प्राप्ति नहीं होती । इसलिए यह मिथ्या ज्ञान है । इस प्रकार के मिथ्याज्ञानों को लेकर विज्ञानवादियों ने समस्त ज्ञानों को मिथ्या मान लिया । उन्हों ने कहा, जिस प्रकार रजत न होने पर भी प्रतीत होता है इसी प्रकार पुस्तक, सूर्य, चन्द्र, भूमि आदि समस्त अर्थ भी न होते हुए प्रतीत होते हैं इसलिए ज्ञान केवल सत्य है और अर्थ मिथ्या है । प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरुद्ध होने के कारण ज्ञानाद्वैत अयुक्त है ।
94.एतदाभासमाहुः-सत्ताद्वैतं स्वीकुर्वाण: सकलविशेषान् निराचक्षाणस्तदाभासः ।।७-१७।। यथा-सत्तैव तत्त्वं, ततः पृथग्भूतानां विशेषाणामदर्शनात् ।।७-१८।। द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान् निढुवानस्तदाभासः ।।७-२१।। यथा द्रव्यत्वमेव तत्त्वं, ततोऽर्थान्तरभूतानां द्रव्याणामनुपलब्धरित्यादिः।।७-२२।। द्रव्यत्वादिसामान्यमङ्गीकृत्य तद्विशेषान् धर्माधर्मादीन् प्रतिक्षिपन्नभिप्रायविशेषस्तदाभासः-अपरसंग्रहाऽऽभास इत्यर्थः ।।२१।। ततः-द्रव्यत्वसकाशात्, अर्थान्तरभूतानां-धर्माधर्माऽऽकाशादीनाम् ।।२२।। (प्र.न.तत्त्वा .)
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