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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद विद्यमान है। अभिव्यक्ति के लिए कारण का व्यापार होता है, परन्तु यहाँ पर भी दो विकल्प उठते हैं । अभिव्यक्ति रूप अर्थ नित्य अथवा कार्य होना चाहिए । यदि अभिव्यक्ति नित्य है तो सर्वथा विद्यमान है । इसलिए कारण का व्यापार नहीं होना चाहिए। यदि अभिव्यक्ति अनित्य है, तो उसकी उत्पत्ति माननी होगी । उत्पत्ति मानने पर अभिव्यक्ति रूप कार्य उत्पन्न होने से पहले विद्यमान हो तो अभिव्यक्त रूप में कार्य के विद्यमान होने से व्यापार नहीं होना चाहिए । स्वयं अभिव्यक्ति विद्यमान है, इसलिए उसके लिए भी कारण का व्यापार नहीं होना चाहिये । इस दोष से बचने के लिए यदि अभिव्यक्ति रूप कार्य को उत्पत्ति से पहले असत् कहा जाय, तो कार्य कारण में सर्वथा विद्यमान है, इस मत का त्याग करना पडेगा । फिर कार्य की अभिव्यक्ति पहले अविद्यमान होकर यदि उत्पन्न हो सकती है तो कार्य को भी पहले अविद्यमान होकर उत्पन्न होने में कोई रुकावट नहीं हो सकती ।
अब यदि इन दोषों को हटाने के लिए कहा जाय, उत्पन्न होने से पहले कारणों में जो कार्य विद्यमान होते हैं उन पर आवरण रहता है । आवरण को हटाने के लिए कारणों का व्यापार होता है, तो यह भी युक्त नहीं है । सांख्यमत अनुसार असत् की उत्पत्ति जिस प्रकार नहीं होती, इस प्रकार सत् का विनाश भी नहीं होता । आवरण विद्यमान है इसलिए उसका नाश नहीं होना चाहिए । इसके अतिरिक्त जहाँ आवरण के कारण कोई अर्थ नहीं प्रतीत होता, वहाँ पर आवरण अवश्य प्रतीत होता है । अन्धेरे में पट नहीं दिखाई देता । अन्धकार पट को ढांक देता है और स्वयं दिखाई देता है । कारण में विद्यमान कार्य को ढांकनेवाले किसी अर्थ का ज्ञान नहीं होता, इसलिए आच्छादक कार्य की उत्पत्ति से पहले कारण दिखाई देता है, यदि उसको ही कार्य का आच्छादक कहा जाय तो युक्त नहीं है । कारण-उत्पादक है वह कार्य का आच्छादक नहीं हो सकता । उत्पत्ति के अनन्तर विद्यमान पट को तन्तु रूप कारण जिस प्रकार नहीं ढकते, इस प्रकार उत्पत्ति से पहले भी विद्यमान पट को नहीं ढक सकते । एकान्त का आश्रय लेने पर अर्थ का सत्य स्वरूप प्रकट नहीं होता । प्रमाण कारण के साथ कार्य के सर्वथा अभेद को नहीं किन्तु अनेकान्त रूप से अभेद को प्रसिद्ध करते हैं । एक अपेक्षा से कार्य का कारण के साथ अभेद है और अन्य अपेक्षा से भेद है । जो तन्तु पहले पट के बिना दिखाई देते हैं, वही तन्तुवाय के व्यापार से पट रूप में हो जाते हैं । पट के साथ भी तन्तुओं का रूप दिखाई देता रहता है । तन्तुओं के बिना पट का स्वरूप कभी प्रतीत नहीं होता। कारणभूत तन्तु, बिना पट के भी प्रतीत होते हैं । इस लिए कारण का कार्य के साथ अनेकान्त रूप से भेद और अभेद हैं। समस्त जड अर्थों का कारण पुद्गल है । पुद्गलों के साथ पर्यायों का भेदाभेद है । अतः जड कार्यों के साथ सत्कार्यवाद के अनुसार प्रकृति का सर्वथा अभेद संग्रहाभास है ।
व्यवहाराभास :
अपारमार्थिकद्रव्यपर्यायविभागाभिप्रायो व्यवहाराभास: (95) यथा चार्वाकदर्शनम्, चार्वाको हि प्रमाणप्रतिपन्नं जीवद्रव्यपर्यायादिप्रविभागं कल्पनारोपितत्वेनापह्नुतेऽविचारितरमणीयं भूतचतुष्टयप्रविभागमात्रं तु स्थूललोकव्यवहारानुयायितया समर्थयत इति ।
अर्थ ': द्रव्य और पर्याय के असत्य विभाग को प्रकट करनेवाला अभिप्राय व्यवहाराभास है, जिस प्रकार चार्वाक 95.एतदाभासं वर्णयन्ति यः पुनरपारमार्थिकद्रव्यपर्यायविभागमभिप्रैति स व्यवहाराभासः ।।७ - २५ ।। यथा चार्वाकदर्शनम् ।।७ - २६ ।। योऽभिप्रायविशेषो द्रव्य-पर्यायविभागमपारमार्थिकं-काल्पनिकं मन्यते स व्यवहाराऽऽभासः ।। २५ ।। चार्वाको हि वस्तुनो द्रव्य - पर्यायात्मकत्वं नाङ्गीकरोति, किन्तु आपाततः प्रतीयमानं भूतचतुष्टयात्मकं घटपटादिरूपं पदार्थजातं पारमार्थिकं मन्यते, तदतिरिक्तं द्रव्यपर्यायविभागं काल्पनिकमिति । तस्मात् चार्वाकदर्शनं व्यवहाराऽऽभासमिति भावः ।। २६ ।। (प्र.न. तत्त्वा.)
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