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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद यदि पर्यायों के भेद से अर्थ में भेद न हो तो अर्थ का वाचक एक ही शब्द हो जाना चाहिए । इसलिए भिन्न पर्याय को लेकर घट कथंचित् असत् भी है। इसी प्रकार एवंभूत का आश्रय लेकर घट का निषेध हो सकता है। जिस काल में घट से जल लाया जा रहा है तभी घट है पर जब जल नहीं लाया जा रहा तब वह घट नहीं कहा जा सकता । अतः एवंभूत नय के अनुसार घट कथंचित् असत् भी है। इस रीति से संग्रह के द्वारा सत्त्व और व्यवहार आदि के द्वारा असत्त्व का प्रतिपादन होने के कारण घट रूप अर्थ में प्रथम और द्वितीय भङ्ग हो जाते हैं ।
इसके अनन्तर संग्रह व्यवहार अथवा संग्रह ऋजुसूत्र आदि दो नयों के आश्रय से क्रम के साथ सत्त्व और असत्त्व का प्रतिपादन करने पर तीसरा उभय भङ्ग होगा । यदि दो दो नयों का आश्रय लेकर बिना क्रम के सत्त्व और असत्त्व के प्रतिपादन की इच्छा हो तो चौथे अवक्तव्य भङ्ग का उदय होगा । विधि के प्रयोजक संग्रह नय का और निषेध के प्रयोजक नयों का आश्रय लेकर एक साथ सत्त्व और असत्त्व के निरूपण की इच्छा हो तो पांचवा 'अस्ति अवक्तव्य' भंग बन जायेगा। प्रतिषेध के प्रयोजक नय का आश्रय लेकर और साथ ही बिना क्रम के सत्त्व और असत्त्व के कहने की इच्छा हो तो छठ्ठा 'नास्ति अवक्तव्य' भङ्ग प्रकट होगा । क्रम और अक्रम की उभय नयों का आश्रय लेकर विवक्षा की जाय तो 'अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य' सातवाँ भङ्ग बन जायेगा । इस रीति से संग्रह से विधि और उत्तरवर्त्ती नयों से निषेध की कल्पना दो मूल भङ्गों को प्रकट करती है । अनन्तर दो मूल भङ्गो के द्वारा पाँच भंग प्रकट हो जाते हैं इस प्रकार सप्तभङ्गी आश्रय न हैं ।
दूसरा प्रकार आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी का है। इसके अनुसार संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थनय हैं। इन तीन नयों में सप्तभंगी का उद्भव है । सामान्य के प्रकाशक संग्रह में प्रथम भङ्ग है, जिसका आकार है 'स्यात् अस्ति'। दूसरा भंग है 'स्यात् नास्ति' । यह विशेष के प्रकाशक व्यवहार का आश्रय लेता है। तृतीय पात् अवक्तव्य' भङ्ग ऋजुसूत्र पर आश्रित है। 'स्यात् अस्ति और स्यात् नास्ति' यह चतुर्थ भङ्ग संग्रह और व्यवहार के द्वारा प्रवृत्त होता है । 'स्यात् अस्ति स्यात् अवक्तव्य' यह पाँचवाँ भङ्ग संग्रह और ऋजुसूत्र से प्रकट होता है। 'स्यात् नास्ति स्यात् अवक्तव्य' यह छठ्ठा भङ्ग व्यवहार और ऋजुसूत्र का आश्रय लेता है। 'स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति, अवक्तव्य' यह सातवाँ भङ्ग संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र का आश्रय लेता है ।
स्यात्
व्यंजन पर्याय अर्थात् साम्प्रत, समधिरूढ और एवंभूत नय के अनुसार सप्तभङ्गी का स्वरूप कुछ भिन्न हो जाता है। इन में से साम्प्रत का अन्य नाम शब्द भी है। इस शब्द अथवा साम्प्रत नय के द्वारा घट सभी पर्याय शब्दों से वाच्य है। इसलिए घट के वाचक जितने शब्द हैं उनके द्वारा वाच्य रूप से घट कथंचित् सत् है यह प्रथम भङ्ग प्रकट होता है । समभिरूढ और एवंभूत नय के अनुसार घट के वाचक जितने पर्याय शब्द हैं उनके द्वारा घट वाच्य नहीं है । अत: इस रूप में घट कथंचित् नहीं है इस प्रकार का द्वितीय भङ्ग प्रकट होता है । तृतीय भङ्ग स्यात् अवक्तव्य है, वह इन तीनों नयों का आश्रय लेकर प्रकट होता है । लिंग के भेद से अर्थ भिन्न हो जाता है, इसलिए घट किसी एक शब्द के द्वारा वाच्य नहीं है, अतः स्यात् अवक्तव्य है। पर्याय के भेद से अर्थ भिन्न है, इसलिए एक शब्द भिन्न अर्थ का वाचक नहीं, अतः समभिरूद्ध नय के अनुसार घट स्यात् अवक्तव्य है । क्रिया के भेद से अर्थ भिन्न हो जाता है, अतः एवंभूत नय के अनुसार घट स्यात् अवक्तव्य है । स्यात् अस्ति और स्यात् नास्ति एवं इन प्रथम और द्वितीय भङ्गों के संयोग से 'स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति' यह चतुर्थ भङ्ग प्रकट होता है ।
प्रथम द्वितीय और चतुर्थ भङ्गों के साथ स्यात् अवक्तव्य इस तृतीय भङ्ग का संयोग होने पर पंचम, षष्ठ और सप्तम भङ्ग प्रकट होते हैं । इनमें से प्रथम के साथ तृतीय अवक्तव्य भङ्ग का संयोग होने पर पाँचवीं, द्वितीय भंङ्ग के साथ अवक्तव्य का संयोग होने पर छठ्ठा, चतुर्थ के साथ अवक्तव्य का संयोग होने पर सातवाँ भङ्ग प्रकट होता है ।
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