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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
एवंभूतनय की मान्यता को स्पष्ट करते हुए जैनतर्क भाषा में बताते है कि,
न हि कश्चिदक्रियाशब्दोऽस्यास्ति । गौरश्व इत्यादि जातिशब्दाभिमतानामपि क्रिया शब्दत्वात् गच्छतीति गौः, आशुगामित्वादश्व इति । शुक्लो, नील इति गुणशब्दाभिमता अपि क्रिया शब्दा एव-शुचीभवनाच्छुक्लो, नीलनात् नील इति । देवदत्तो यज्ञदत्त इति यदृच्छाशब्दाभिमता अपि क्रिया शब्दा एव, देव एनं देयात् यज्ञ एनं देयादिति । संयोगिद्रव्य शब्दाः समवाय (वि) द्रव्य शब्दाश्चाभिमताः क्रिया शब्दा एव, दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी, विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यस्तिक्रियाप्रधानत्वात् । पञ्चतयी तु शब्दानां व्यवहारमात्रात्, न तु निश्चयादित्ययं नयः स्वीकुरुते ।
अर्थ : एवंभूतनय के अनुसार कोई भी शब्द अक्रिया शब्द नहीं है । गो अश्व इत्यादि शब्द जाति-वाचक मानेजाते हैं पर वे भी क्रिया शब्द हैं । जो गमन करती है वह गौ है और जो जल्दी जाता है वह अश्व है । शुक्ल नील आदि शब्द गुण शब्द कहे जाते हैं पर वे भी क्रिया शब्द हैं। शुचि होने से शुक्ल और नीलन करने से नील कहा जाता है । देवदत्त यज्ञदत्त आदि शब्द यदृच्छा शब्द कहे जाते हैं पर वे भी क्रिया शब्द हैं । देव इसको देवे इस प्रकार की इच्छा जिसके लिए की जाय वह देवदत्त है, यज्ञ इसको देवे इस प्रकार की इच्छा जिसके लिये की जाय वह यज्ञदत्त है । संयोगिद्रव्य शब्द और समवायिद्रव्य शब्द जो माने जाते हैं, वे भी क्रिया शब्द हैं । दण्ड इसका है इसलिए दण्डी, विषाण इसका है इसलिए विषाणी इस रीति से इन में भी होने की क्रिया प्रधान है । शब्दों के पांच प्रकार केवल व्यवहार से हैं, निश्चय से नहीं, इस वस्तु को यह नय स्वीकार करता है ।
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कहने का मतलब यह है कि, पांच प्रकार के शब्द माने जाते हैं । जाति शब्द, गुण शब्द, क्रिया शब्द, यदृच्छा शब्द और द्रव्य शब्द । इन सभी शब्दों में कोई न कोई क्रिया अवश्य प्रतीत होती है । जिनको क्रिया शब्द कहा जाता है उनमें क्रिया अति स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है और अन्य शब्दों में क्रिया का भान अस्पष्ट रूप से होता है । गो आदि शब्दों को जाति शब्द कहा जाता है पर वहां भी व्युत्पत्ति के अनुसार गमन आदि क्रिया का सम्बन्ध प्रतीत होता है । शुक्ल आदि रूप गुण हैं इसलिए शुक्ल आदि शब्दों को गुण का वाचक होने से गुण शब्द कहा जाता है । जो शुचि हो रहा है कि वह शुक्ल है इस व्युत्पत्ति के अनुसार निर्मल होना एक क्रिया है जिसके साथ संबंध होने से रूप शुक्ल कहा जाता है । गति आदि क्रियाओं के समान होना क्रिया, चलन रूप नहीं है परन्तु क्रिया है । होना एक प्रकार का परिणाम है और परिणाम क्रिया है । जितने भी अर्थ हैं- परिणामी हैं । जीव पुद्गल आदि जितने भी चेतन-अचेतन द्रव्य हैं सब पर्यायों से युक्त हैं । पर्याय क्षणिक हैं, प्रथम क्षण में जो पर्याय है वह दूसरे क्षण में नहीं है । चलन रूप अथवा अचलन रूप परिणाम समस्त द्रव्यों में होता है । गुण द्रव्यों से भिन्न और अभिन्न हैं इसलिए अभेद की अपेक्षा से वे भी परिणामी है । निर्मल होने
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कारण रूप शुक्ल कहा जाता है । निर्मल होना भी परिणाम है, इस प्रकार की परिणाम रूप क्रिया के साथ संबंध होने गुणशब्द भी क्रिया शब्द है । जब तक निर्मल हो रहा है तब तक शुक्ल कहा जा सकता है । जब निर्मल भाव नहीं रहेगा तब शुक्ल रूप का स्वरूप भी नहीं रहेगा । उस काल में शुक्ल शब्द का प्रयोग उचित नहीं है ।
देवदत्त आदि शब्दों को कुछ लोग यदृच्छा शब्द कहते हैं । वहाँ भी व्युत्पत्ति के अनुसार देवों के द्वारा दान क्रिया का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में प्रतीत होता है । जिनको द्रव्य शब्द कहा जाता है वे भी संयोगी द्रव्य को अथवा समवायी द्रव्य को कहते हैं । संयोग गुण है परन्तु जब संयोग होता है तभी संयोगी द्रव्य शब्द का प्रयोग किया जाता है । दंड संयोग होना भी क्रिया है । जब तक दंड का संयोग है तभी तक दंडी कहा जाता है, इसलिए यह भी क्रिया शब्द है ।
जब लोग शब्दों को पांच प्रकार का कहते हैं, तब व्युत्पत्ति के द्वारा प्रतीत होनेवाली क्रिया को गौण मानकर और जाति गुण आदि को प्रधान मानकर व्यवहार करते हैं । निश्चय नय के अनुसार विचार करने पर सभी शब्दों में क्रिया विद्यमान है । इस रीति से एवंभूत नय सभी शब्दों को क्रिया शब्द कहता है । इस प्रकार सात नयों का निरुपण पूर्ण होता है ।
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