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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
अर्थनय-शब्दनय : अब सात नयो का अर्थनय और शब्दनय में विभागीकरण करते हुए जैनतर्क भाषा में कहा है
कि,
एतेष्वाद्याश्चत्वारः प्राधान्येनार्थगोचरत्वादर्थनयाः अन्त्यास्तु त्रयः प्राधान्येन शब्दगोचरत्वाच्छब्दनयाः ।(83)
अर्थ : इन सात नयों में आदि के चार प्रधानरूप से अर्थ के विषय में हैं इसलिए अर्थनय हैं और अंतिम तीन मुख्य रूप से शब्द के विषय में हैं इसलिए शब्दनय हैं ।
कहने का मतलब यह है कि, नय श्रुत प्रमाण के भेद हैं । अर्थों में अनेक प्रकार के धर्म हैं । द्रव्य आदि की अपेक्षा से किसी धर्म को मुख्य रूप से और किसी को गौण रूप से नय प्रतिपादित करते हैं । कोई नय, विशेष के होने पर भी केवल सामान्य का प्रतिपादन करते हैं और कोई केवल विशेष का । अपेक्षा के भेद से शब्दों द्वारा निरूपण नयों का मुख्य कार्य है । इस कारण सातों नय शब्द के साथ सम्बन्ध रखते हैं । उनके द्वारा जो ज्ञान होता है वह शब्द से उत्पन्न होता है। वृक्ष में फूल हैं । जिस प्रकार वृक्ष की सत्ता है इसी प्रकार फूलों की भी है। फूल ही नहीं; शाखा, पत्र, मूल आदि की भी समान सत्ता है पर जब हम गौण और मुख्य भाव से कहते हैं तब नैगम नय हो जाता है । इस प्रकार से वक्ता के कहने की इच्छा नैगम नय का मूल है । ___ अर्थ सामान्य रूप भी है और विशेषरूप भी । जब भेद की उपेक्षा करके अभिन्न स्वरूप से कहने की इच्छा होती है, तब संग्रह नय प्रकट होता है । जब सामान्य रूप की उपेक्षा करके भेद के प्रकट करने की इच्छा होती है तब व्यवहार नय का उदय होता है । जब तीनों कालों के साथ सम्बन्ध होने पर भी वर्तमान काल की अपेक्षा से किसी धर्म का निरूपण हो, तो ऋजुसूत्र नय हो जाता है । इस प्रकार नैगम से लेकर ऋजुसूत्र तक के नय भी जिस ज्ञान को उत्पन्न करते हैं वह शब्द से उत्पन्न होता है ।
शब्द पर आश्रित होने पर भी धर्म और धर्मी, सामान्य और विशेष अथवा वर्तमान काल रूप अर्थ के साथ सम्बन्ध होने के कारण नैगम आदि चार को अर्थ नय कहा जाता है, शब्द आदि तीन नय शब्दों के कारण भेद न होने पर भी अर्थों में भेद मानने लगते हैं । फल का तीन कालों के साथ सम्बन्ध है, काल के भेद से फल के स्वरूप में कोई स्पष्ट भेद नहीं प्रतीत होता, परन्तु शब्द नय वर्तमान काल के वाचक शब्द के साथ सम्बन्ध होने के कारण अतीत काल के सम्बन्धी फल से भेद मानता है । यह भेद वस्तु के स्वरूप के कारण नहीं किन्तु शब्द के कारण प्रतीत होता है इसलिए शब्दनय को अर्थात् सांप्रतनय को शब्द नय कहा जाता है ।
समभिरूढ नय भी पर्याय शब्द के भेद से अर्थ में भेद मानता है, वास्तव में जो अभेद है उसकी उपेक्षा करता है । जब शासन के द्वारा ऐश्वर्य का प्रकाशन करे तब इन्द्र कहना चाहिए, शक्र अथवा पुरंदर नहीं । समभिरूढ नय का यह अभिप्राय वाच्य-वाचक भाव के साथ सम्बन्ध रखता है । अर्थ के पारमार्थिक स्वरूप के साथ इसका सम्बन्ध नहीं है । एवंभूत भी जब गाय चल रही हो तभी उसको गो शब्द से वाच्य समझता है । जब गाय बैठी हो और सो रही हो तब गो शब्द को उसका वाचक नहीं मानता । इस प्रकार वाच्य-वाचक भाव के साथ एवंभूत का भी सम्बन्ध है - अतः यह भी शब्द नय कहा जाता है । नैगम आदि का वाच्य-वाचक भाव के साथ सम्बन्ध नहीं है, इसलिए वे अर्थ नय कहे जाते हैं । शब्द के द्वारा वस्तु के स्वरूप को प्रकट करने पर ही आश्रित होने के कारण शब्दो के साथ सम्बन्ध तो अर्थ नयों का भी कम नहीं है। वे भी जिस ज्ञान को उत्पन्न करते हैं वह भी शब्द से उत्पन्न होनेवाला है । 83.एतेषु चत्वारः प्रथमे, अर्थनिरूपणप्रवणत्वादर्थनयाः ।।७-४४ ।। शेषास्तु त्रयः शब्दवाच्यार्थगोचरतया शब्दनया: ।।७-४५।।
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