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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद है । इसका उत्तर यह है कि, प्रधान रूप से जो द्रव्य और पर्याय को प्रकाशित करता है वही ज्ञान प्रमाण होता हैं । (परन्तु गौण-मुख्य भाव से उभय को प्रकाशित करता हुआ नैगम नय 'प्रमाण' की कोटी में आता नहीं है 1 )
कहने का मतलब यह है कि, सामान्य और विशेष का द्रव्य और पर्याय का, नित्यत्व और अनित्यत्व आदि का प्रतिपादन नैगम गौण- मुख्य भाव से करता है । जहाँ पर नैगम सामान्य का प्रधान भाव से और विशेष का गौण भाव से प्रतिपादन करता है वहाँ पर नैगम का और संग्रह का विषय समान हो जाता है । जहाँ पर विशेष का प्रधान रूप से और सामान्य का गौण रूप प्रकाशन होता है वहाँ पर व्यवहार और नैगम का विषय समान हो जाता है । यहाँ ध्यान में रखना चाहिए कि, जब नैगम सामान्य अथवा विशेष का प्रतिपादन करता है तब सामान्य के अनुगामी स्वरूप का और विशेष के केवल व्यक्ति में रहनेवाले स्वरूप का प्रकाशन नहीं करता । वह मुख्य रूप से सामान्य और विशेष के गौणमुख्य भाव का आश्रय लेकर प्रकाशन करता है । सामान्य रूप अथवा विशेष रूप वस्तु होती है, केवल इतने से संग्रह अथवा व्यवहार के साथ विषय समान होता है । जब नैगम 'जीव में चैतन्य सत् है' इस प्रकार सत्त्व और चैतन्य इन दो पर्यायों का मुख्य और गौण भाव से प्रतिपादन करता है तब सत्त्व के अनुगामी होने पर भी उसके अनुगामी स्वरूप का प्रतिपादन नहीं करता । किन्तु चैतन्य के साथ सत्त्व का केवल सम्बन्ध प्रकट करता है । इसलिए सत्त्वरूप तिर्यक् सामान्य का प्रतिपादन होने पर भी नैगम का संग्रह से स्पष्ट भेद है । जब नैगम 'विषय में आसक्त जीव क्षण भरके लिए सुखी होता है' इस प्रकार प्रतिपादन करता है तब सुखरूप धर्मात्मक पर्याय का प्रतिपादन करने पर भी सुख के व्यक्तिमय विशेष रूप का निरूपण नहीं करता । सुख एक पर्याय विशेष है । इस तत्त्व की ओर नैगम का ध्यान नहीं है वह केवल सुख को विशेषण रूप से और जीव को विशेष्य रूप से प्रतिपादन करने में ध्यान देता है । सुख एक पर्याय रूप व्यक्ति विशेष है, इतने से व्यवहार और नैगम का विषय सर्वथा समान नहीं हो जाता ।
सुखरूप धर्म से विशिष्ट धर्मी जीव का प्रतिपादक होने के कारण यह नैगम द्रव्य और पर्याय दोंनों का प्रकाशक है। परन्तु धर्मी का मुख्य रूप और सुखात्मक 'धर्म का गौण रूप से प्रकाशक है, इसलिए प्रमाण से भिन्न है । द्रव्य और पर्याय दोनों का प्रधान भाव से प्रकाशन हो तो ज्ञान प्रमाण होता है ।
नैगमनय में अनेक धर्मो का प्रतिपादन होता है । कोई भी वस्तु सामान्य विशेष उभय धर्मात्मक ही होती हैं। । सामान्य धर्म और विशेष धर्म दोनों का ग्राहक अध्यवसाय विशेष नैगमनय हैं । नैगमनय जब वस्तु के मुख्यतः सामान्य धर्म का प्रतिपादन करता है, तब गौण रूप में विशेष धर्मो को स्वीकृत रखता है और जब मुख्यरूप में विशेष धर्म का प्रतिपादन करता है, तब गौणरूप में सामान्य धर्मो को स्वीकृत रखता हैं । मुख्य गौण भाव नियत नहीं होते हैं । वक्ता की इच्छानुसार कभी द्रव्य और कभी पर्याय मुख्य और गौण हो जाते हैं ।
पू. पूर्वाचार्योने “ नैगम ” पद की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है । नैक गमो नैगम: ( 22 ) । जिसमें कहने के मार्ग एक नहीं, परन्तु अनेक हैं, उसे नैगमनय कहा जाता हैं। पू. महोपाध्याय श्रीजीने नयरहस्य में इसी बात को बताते हुए कहा हैं कि (23) निगम अर्थात् लोक अथवा संकल्प । उसमें से जिसकी उत्पत्ति हो उसे नैगम नय कहा जाता है । अर्थात् प्रसिद्ध अर्थ को स्वीकार करनेवाला नय वह नैगमनय है और लोकप्रसिद्धि सामान्य विशेष उभय के उद्गम से संवहित होती है अर्थात् लोक में जो व्यवहार होता है वह सामान्य धर्म और विशेष धर्म, इस तरह उभय धर्मो को प्रधान बनाकर 22. "गेहिं माणेहिं मिणइति ये नेगमस्स य निरुत्ति ।" (अनुयोगद्वार सूत्र - १३२ ) 23 निगमेषु भवोऽध्यवसायविशेषो नैगमः । तद्भवत्वं च लोकप्रसिद्धार्थोपगन्तृत्वम् । लोकप्रसिद्धिश्च सामान्यविशेषाद्युभयोपगमनेन निर्वहति । (नयरहस्य) नैकमानमेयविषयोऽध्यवसायो नैगम इत्येतदर्थः ।
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