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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
४६५/१०८८ से केवल उसके मूल पाठ टिप्पणी में संकलित किये हैं ।(46) इस प्रकार संग्रहनय, संग्रह करने में तत्पर एक अध्यवसाय विशेष है । संग्रहनय के भी चार निक्षेपा माने गये हैं।(47)
(३) व्यवहारनय :- व्यवहारनय का स्वरूप समजाते हुए जैनतर्कभाषा में कहा हैं कि
"संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः । यथा यत् सत् तद् द्रव्यं पर्यायो वा । यद् द्रव्यं तज्जीवादिषड्विधम् । य: पर्याय: स द्विविधः क्रमभावी सहभावी चेत्यादि ।(48)"
संग्रहनय द्वारा विषय किये गये (प्रकाशित) पदार्थो का विधिपूर्वक विभाग जो अभिप्राय द्वारा किया गया हैं, उस अभिप्राय विशेष को व्यवहारनय कहा जाता हैं । जो पदार्थ भिन्न होने पर भी साधारण धर्म द्वारा एक प्रतीत होता हैं, उस पदार्थो को उसके विशेष धर्म द्वारा विभाग करना वह व्यवहार हैं । जैसे कि, जो सत् है, वह द्रव्यरूप अथवा पर्यायरूप होता है । जो द्रव्य हैं, वह जीवादि छ: प्रकार का हैं और जो पर्याय हैं, वह दो प्रकार का हैं - क्रमभावी
और सहभावी इत्यादि । ___ कहने का मतलब यह है कि, पहले बताये अनुसार अपर संग्रह अनेक प्रकार का हैं और पर संग्रह एक प्रकार का हैं। दोनों संग्रहो से जिसका ज्ञान होता है, उसका भेद व्यवहार करता है । समस्त पदार्थो को परसंग्रहनय 'सत्' रूप से एक करते हैं और व्यवहार नय उसका विभाग करता हैं । अपरसंग्रहनय समस्त द्रव्यो का द्रव्यरूप से संग्रह करता है और व्यवहार नय उस द्रव्यो को जीव, पुद्गल आदि रूप से विभाग करता हैं । उसी प्रकार से पर्यायरूप से समस्त पर्यायो का संग्रह संग्रहनय करता है और व्यवहार नय उसका क्रमभावी और सहभावी रूप से भेद करता हैं । उसके बाद भी विभाग होता हैं ।(49) जीव दो प्रकार का है - मुक्त और संसारी । पुद्गल दो प्रकार का हैं - अणु और स्कंध । क्रमभावी पर्याय भी क्रियारूप और अक्रियारूप हैं । - व्यवहारनय की मान्यता :
व्यवहारनय मात्र 'विशेष' को ही प्रधानता देता है और विशेष का उपयोग करके प्रत्येक पदार्थो को अलग कर देता हैं। संग्रहनय 'सामान्य' धर्म का उपयोग करके सभी को एक दूसरे में समाता है । व्यवहारनय 'विशेष' धर्म का उपयोग करके सभी को (प्रत्येक पदार्थो को) अलग करके समजाता हैं । व्यवहारनय की मान्यता स्पष्ट करते हुए नयकर्णिका में कहा हैं कि- विशेषात्मकमेवार्थं व्यवहारश्च मन्यते । विशेषभिन्नं सामान्यमसत्खरविषाणवत् ।।८।। - व्यवहारनय
उच्यते, पिण्डितं त्वकेजातिमानीतमभिधीयते पिण्डितसङ्ग्रहः । अथ सर्वव्यक्तिष्वनुगतस्य सामान्यस्य प्रतिपादनमनुगमसङ्ग्रहोऽभिधीयते। व्यतिरेकस्तु तदितरधर्मनिषेधाद् ग्राह्यधर्मसङ्ग्रहकारकं व्यतिरेकसङ्ग्रहो भण्यते यथा जीवो जीव: इति निषेधे जीवसङ्ग्रह एव जीवाः । अत: १ सङ्ग्रह २ पिण्डितार्थ ३ अनुगम ४ व्यतिरेकभेदाच्चतुर्विधः । अथवा स्वसत्ताख्यं महासामान्यं संगृह्णाति इतरस्तु गोत्वादिकमवान्तरसामान्यं पिण्डितार्थमभिधीयते महासत्तारूपं अवान्तरसत्तारूपं "एगं निश्चं निरवयवमक्कियं सव्वगं च सामन्नं" (विशे. २२०६) एतद् महासामान्यं गवि गोत्वादिकमवान्तरसामान्यमिति संग्रहः । 46. सङ्ग्रहः सगृहीतस्य पिण्डितस्य च निश्चयः। सङ्गृहीतं परा जाति: पिण्डितं त्वपरा स्मृता ।।२२।। एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च-षड्भेदा जीवगोचरा: । भेदाभ्यामस्य सामान्य-विशेषाभ्यामुदीरिताः ।।२३।। उपचारा विशेषाश्च, नैगम-व्यवहारयोः । इष्टा ह्यनेन नेष्यन्ते, शुद्धार्थपक्षपातिना ।।२४ ।। 47. अस्यापि चत्वारो निक्षेपा अभिमता (नयरहस्य) 48. संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहार ।।७-२३।। यथा - यत् सत् तद् द्रव्यं पर्यायो वेत्यादिः ।।७-२४।। (प्रमाणनयतत्त्वालोकः) 49. आदि शब्दादपरसंग्रहसंगृहीतार्थगोचरव्यवहारोदाहरणम्, यद् द्रव्यं तज्जीवादिषड्विधम् । य: पर्याय: स द्विविधः क्रमभावी सहभावी चेति। एवं यो जीव: स मुक्त: संसारी च । य: क्रमभावी पर्याय: स क्रियारूपोऽक्रियारुपश्चेति ।। (प्रमाणनयतत्त्वालोक-वृत्ति) ।
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