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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
४६९/१०९२ महाराजा श्री अनुयोगद्वारसूत्र की विवृत्ति में ऋजुसूत्रनय की (57)मान्यता बताते हुए कहते हैं कि... यह ऋजुसूत्रनय वर्तमान (वर्तमान-क्षणस्थायी) स्वलिंग-वचन-नामादि से भिन्न भी वस्तु को 'एक वस्तु' के रूप में स्वीकार करता हैं । ऋजुसूत्र के मतानुसार अतीतकाल और अनागतकाल भाव (वस्तुरूप) नहीं हैं । क्योंकि अतीतकाल नष्ट हुआ है, इसलिए वह अभी विद्यमान नहीं है और भविष्यकाल उत्पन्न नहीं हुआ है, इसलिए वह भी इस समय विद्यमान नहीं है । तदुपरांत परकीय वस्तु भी वस्तुरूप नहीं है । क्योंकि वह निष्फल हैं । अर्थात् परकीय वस्तु से स्व को कोई भी प्रकार का फल नहीं मिलता हैं । दूसरे के धन से अपने जीवन व्यवहार नहीं चलते है । इसलिए परकीय धन स्व के लिए निष्फल है । इसलिए वर्तमानकालीन और स्वकीय वस्तु ही वस्तु हैं, ऐसी ऋजुसूत्र नय की मान्यता है । यह बात नयचक्रसार में भी स्पष्टता करके दी गई है ।(58)
तदुपरांत ऋजुसूत्रनय मानता है कि, लिंगादि के भेद से भी वस्तु अपना स्वरूप छोडती नहीं है । 'तटस्तटी तटम्' इस प्रयोग में लिंग भेद होने पर भी वस्तु तो एक ही रहती है । वस्तु अपना स्वरूप छोडती नहीं हैं । 'आपो जलम्' इस प्रकार में वचन भेद होने पर भी 'पानी' नाम को वस्तु तो वही की वही रहती है । वस्तु स्व का स्वरूप छोडती नहीं हैं । ___ उसी तरह से ऋजुसूत्रनय नामादि चारो निक्षेपाओं का स्वीकार करता हैं । चार निक्षेपा से आक्रांत वस्तु को भी एक ही वस्तु के रूप में ऋजुसूत्रनय स्वीकार करता हैं । (क्योंकि ऋजुसूत्रनय अतीतकालावच्छिन्न और अनागतकालावच्छिन्न वस्तु के व्यवच्छेदपरक हैं ।)
ऋजुसूत्रनय की मान्यता बताते हुए(59) नयकर्णिका में बताया हैं कि - ऋजुसूत्रनय अतीत या अनागतकालीन वस्तु को वस्तु के रुप में स्वीकार नहीं करता है। परन्तु मात्र वर्तमानकालीन और निज (स्वकीय) वस्तु को ही वस्तु के रुप में स्वीकार करता हैं । जैसे. आकाशकसम असत होने से उससे कोई कार्य सिद्धि नहीं होता हैं. वैसे अनागतकालीन अतीतकालीन और परकीय वस्तु से भी कोई कार्य की सिद्धि होती न होने से वह वस्तुरूप नहीं हैं ।
(60)नय रहस्य में ऋजुसूत्रनय की मान्यता को स्पष्ट करते हुए खुलासा किया हैं कि... यदि व्यवहार नय, 'सामान्य' व्यवहार का अंग न होने से उसे स्वीकार नहीं करता हैं, तो फिर जो वस्तु परकीय हैं, अनागतकालीन है और
57.अयं हि नय: वर्तमानं स्वलिङ्ग - वचन - नामादिभिन्नमप्येकं वस्तु प्रतिपद्यते, शेषवस्त्विति । तथाहि - अतीतमेष्यं (ष्यद् ?) वा
न भावः, विनष्टऽनुत्पन्नत्वाददृश्यत्वत्वात्, खपुष्पवत्, तथा परकीयमप्यवस्तु, निष्फलत्वात्, खपुष्पवत्; तस्मात् वर्तमानं स्वं वस्तु। तच्च न लिङ्गादिभिन्नमपि स्वरूपमुज्झति - लिङ्गभिन्नं तटस्तटी तटमिति वचनभिन्नमापो जलम्, नामादिभिन्नं नाम - स्थापना - द्रव्य - भावा इति ।। (अनुयोग द्वार-विवृत्ति) 58. उज्ज॑ति । ऋजु श्रुतं - सुज्ञानं बोधरूपं, ततश्च ऋजु अवक्रं श्रुतमस्य सोऽयमृजुश्रुतं । वा अथवा, ऋजु अवक्रं वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्र इति । कथं पुनरेतदभ्युपगतस्य वस्तुनोऽवक्रत्वमित्याह - पञ्चपन्नं संपयमुप्पन जं च जस्स पत्तेयं । तं रुजु तदेव तस्सत्थि उवकम्मन्नति जमसंतं ।। (विशे. २२२३) यत्सांप्रतमुत्पन्नं वर्तमानकालीनं वस्तु, यच्च यस्य प्रत्येकमात्मीयं तदेतदुभयस्वरूपं वस्तु प्रत्युत्पन्नमुच्यते तदेवासौ नयः ऋजुः प्रतिपद्यते तदेव च वर्तमानकालीनं वस्तु तस्यर्जुसूत्रस्यास्ति, अन्यत्र शेषातीतानागतं परकीयं च यद्यस्मात् असदविद्यमानं ततो असत्त्वादेव तद्वक्रमिच्छत्यसाविति । अत एव उक्तं नियुक्तिकृता - "पचपन्नगाही उज्नुसुयनयविही मुणेयव्वोत्ति" (आ.नि. ५७) यत: कालत्रये वर्तमानमंतरेण वस्तुत्वं उक्तं च यत: अतीतं (नष्ट) अनागतं भविष्यति न सांप्रतं तदवस्तु इति वर्तमानस्यैव वस्तुत्वमिति । अतीतस्य कारणता अनागतस्य कार्यता जन्यजनकभावेन प्रवर्तते अत: ऋजुसूत्रं वर्तमानग्राहकं। तद् वर्तमानं नामादिचतुःप्रकारं ग्राह्यम् ।। (नयचक्रसार) 59. ऋजुसूत्रनयो वस्तु नातीतं नाप्यनागतम् । मन्यते केवलं किन्तु वर्तमानं तथा निजम् ।।११।। अतीतेनानागतेन परकीयेन वस्तुना न कार्यसिद्धिरित्येतदसद्गगनपद्मवत् ।।१२।। (नयकर्णिका) 60. व्यवहारो हि सामान्य व्यवहारऽनङ्गत्वान्न सहते, कथं तर्हि अर्थमिति परकीयं अतीतमनागतं चाप्यभिधानमपि तथाविधार्थवाचकं ज्ञानमपि च तथाविधार्थविषयमविचार्य सहेत ? इत्यस्याभिमानः (नयरहस्य)
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