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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
सिद्धान्तवादी आचार्य ऋजुसूत्र नय को द्रव्यार्थिक नय में गिनते हैं और तर्कवादी आचार्य ऋजुसूत्र नय को पर्यायार्थिक नय में गिनते हैं । इतना ही विचारभेद हैं । परन्तु सभी आचार्य इस द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय को सात नयो में समा तो लेते ही है । उन दोनों को सात से अलग नय के रुप मे गिनते नहीं हैं ! इसलिए दिगंबराचार्य श्री देवसेन आचार्य की ९ (नौं) नय करने की पद्धति शास्त्र - प्रणालिका के अनुसार नहीं हैं और इस बात को श्री महोपाध्यायजी ने विस्तार से बताई है।
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की मान्यता : "द्रव्यार्थिक मते सर्वे, पर्यायाः खलु कल्पिताः । तेष्वन्वयि च सद् द्रव्यं, कुण्डलादिषु हैमवत् ।।१।। पर्यायार्थमते - "द्रव्यं, पर्यायेभ्योऽस्ति नो पृथक् । यत्तैरर्थक्रिया द्वारा, नित्यं कुत्रोपयुज्यते ।।२।। इति ।
'द्रव्यार्थपर्यायार्थनयलक्षणात् अतीतानागतपर्यायप्रतिक्षेपी ऋजुसूत्रः शुद्धमर्थपर्यायं मन्यमानः कथं द्रव्यार्थिकः स्याद् ? इत्येतेषामाशयः ।"
अर्थ : द्रव्यार्थिक नय के मतानुसार - “सभी पर्याय सचमुच कल्पित है और सभी पर्यायो में अन्वयिद्रव्य ही सञ्चा तत्त्व हैं।" जैसे कुंडल आदि पर्यायों में सुवर्ण ही सच्चा तत्त्व है । ऐसा यहाँ जानना ।।१।। पर्यायार्थिक नय के मतानुसार - “पर्यायो से द्रव्य यह कोई अलग वस्तु ही नहीं है ।" क्योंकि उस पर्यायो के द्वारा ही अर्थक्रिया दिखाई देती है । परन्तु नित्य ऐसा द्रव्य कही भी उपयोग में नहीं आता हैं । __ ये दोनों श्लोक द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय के स्वरूप को समजानेवाले है । सभी वस्तुयें द्रव्यात्मक भी है
और पर्यायार्थिक भी हैं ही । द्रव्य के बिना कभी भी अकेले पर्याय नहीं होते हैं और पर्यायो के बिना अकेला द्रव्य कभी नहीं होता हैं । जैनशासन में ज्ञानी भगवंत कहते है कि - "छः द्रव्य परिणामी नित्य है" और प्रत्यक्ष में भी ऐसा अनुभव में आता है । जैसे कि, “दूध-दही-मक्खन-घी-लड्डु" इत्यादि पर्याय बदलते जाते है । फिर भी उसमें पुद्गल द्रव्य अन्यवि भी हैं ही । देव-नरक-तिर्यंच और मनुष्य अवस्थायें बदलती हैं । फिर भी उसमें जीवद्रव्य नित्यरूप में वर्तित होता ही हैं। ऐसा सर्वत्र जानना । जब द्रव्यार्थिकनयवाली दृष्टि होती हैं, तब पर्याय कल्पित लगते है और द्रव्य ही दिखता हैं । जैसे कि, सोने के पुराने गहने तोडकर नये नये बनाते सोने के मालिक को हर्ष-शोक नहीं होते है क्योकि उसे इस गहनों में सोना ही दिखता हैं और मेरा सोना मेरे घर में ही रहता हैं अर्थात् कुंडल - कडा - केयूर - कटिबंध बनाने पर भी मात्र सोना देखनेवाले को सुवर्ण द्रव्य ही प्रधानतया दिखता है। यद्यपि पर्याय भी दिखता है परन्तु उसकी वह गौणता करता हैं । उसी तरह से पर्यायार्थिकनय की दृष्टि जब होती है तब पर्याय ही दिखते हैं। द्रव्य गौण हो जाता है । जैसे कि, कुंडल-कडा-केयूर-कटिबंध ये सभी अलंकारो में सुवर्ण द्रव्य वही का वही होने पर भी कान में पहनना हो तो कुंडल ही काम आता हैं । हाथ में पहनना हो तो कडा ही काम आता है। इस प्रकार पर्याय द्वारा ही तत् तत् अर्थक्रिया होती हैं इसलिए तत् तत् पर्याय ही यथार्थ सत्य दिखता हैं । द्रव्य भी अवश्य दिखता है । परन्तु उसके ओर की दृष्टि गौण हो जाती है । इस तरह से जगत के सभी पदार्थ द्रव्य और पर्यायमय हैं । मात्र दृष्टि की प्रधानता से ही एक मुख्य दिखाई देता है और दूसरा भाग गौण दिखाई हेता है ।
नैगम - संग्रह - व्यवहार ये प्रथम के तीन नय सभी पदार्थों में द्रव्य को ही ज्यादा देखते हैं । पर्यायो की ओर वे नय दृष्टिपात नहीं करते है । इसलिए उन नयो को द्रव्य ही सत्य दिखाई देता है । पर्याय कल्पित लगते हैं । पर्याय बुद्धि से आरोपित मात्र है, ऐसा ये तीन नय मानते हैं । कुंडलाकार या कडेका आकार यह तो मात्र सुवर्णकार के द्वारा किया हुआ कल्पित आकार मात्र ही हैं। वह आज हो कल न भी हो । वास्तविक तो वह सुवर्ण द्रव्य ही हैं । इस प्रकार ये नय सोचते
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