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षड् समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
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यहाँ उल्लेखनीय ( ) हैं कि, ऋजुसूत्रनव जैसे वर्तमानकालीन पदार्थ का ज्ञान उत्पन्न करता है, वैसे शब्दनय भी वर्तमानकालीन पदार्थ का ही ज्ञान उत्पन्न करता है । फिर भी दोनों के बीच भेद है । क्योंकि, शब्दनय लिंग - वचन - संख्यादि के भेद से अर्थ का भेद स्वीकार करता हैं और लिंग वचनादि का भेद होने पर भी अर्थ में भेद नहीं है, ऐसी ऋजुसूत्रनय की मान्यता हैं । " तटस्तटी तटम् " इस प्रयोग में शब्दनय लिंग के भेद से अर्थका भेद मानता हैं और ऋजुसूत्रनय लिंग का भेद होने पर भी अर्थ का अभेद मानते हैं । इस तरह से शब्दन और ऋजुसूत्रनय के बीच मान्यताभेद हैं।
शब्दनय को " साम्प्रत" भी कहा जाता है । 'सम्प्रति' वर्तमानकाल का वाचक हैं । शब्द वर्तमानकाल में जिस स्वरूप से अर्थ का प्रतिपादन करता है, उस अर्थ का रूप है। शब्द के अनुसार अर्थ का स्वरूप साम्प्रत हैं।
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पूर्वोक्त बात को ज्यादा स्पष्ट करते हुए नवरहस्य में बताया है कि, शब्दनय के अवान्तर भेद ( 70 ) तत्वार्थ सूत्र आदि ग्रंथो में बताये गये हैं । (१) साम्प्रत, (२) समभिरूढ और (३) एवंभूत । इस संदर्भ में ही प्रथम “साम्प्रत" को शब्दनय का अभिधान पहले किया था। साम्प्रतनय का लक्षण बताते हुए नयरहस्य में कहा है कि ( नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव : ये चारो को नामादि पद से ग्रहण करते हैं ।) उस प्रतिविशिष्ट पर्यायरूप जो नाम, स्थापना द्रव्य और भावरूप घटादि वस्तु हैं, उसमें संज्ञा-संज्ञी संबंध के ग्रहणकाल में अभिधान रूप से (अर्थात् घट शब्द नाम-घटका वाचक हैं, स्थापना घट का वाचक हैं, द्रव्यघट का वाचक और भावघट का वाचक हैं, इस रूप से) जिस की प्रसिद्धि पूर्वनयों में हो गई हैं, ऐसे शब्द अर्थात् नाम से होनेवाला जो अर्थप्रत्यय = अध्यवसाय विशेष हैं, उसे ही सांप्रतनय कहा जाता है [ (71) सांप्रतनय को शब्द के वाच्य के रुप में भावमात्र ही इच्छित हैं। क्योंकि भाव से ही सर्व अभिलषित कार्यो की सिद्धि होती हैं ।
कहने का आशय यह हैं कि, नाम का वर्तमान पर्याय, स्थापना- द्रव्य और भाव का जो वर्तमान पर्याय हैं, वे सभी प्रत्येक रुप में विशिष्ट हैं अर्थात् एक दूसरे से भिन्न है । इस प्रकार नामादि में भी जिसका संकेत गृहीत हैं अर्थात् “उसके वाचक ये शब्द है" इस तरह से जो शब्द के वाच्य वाचक भावरूप संकेत का ज्ञान संज्ञा-संज्ञी संबंध के काल में हो गया हैं, उस शब्द के भावमात्र की बोधकता में पर्यवसान जिस अध्यवसाय विशेष से होता है, वह अध्यवसाय विशेष ही साम्प्रतनय कहा जाता हैं। सारांश में पूर्वोक्त लक्षण से यह भाव निकलता हैं कि, वर्तमान नामादि में शब्द के संकेत का ज्ञान चाहे हो, तो भी सांप्रतनय की दृष्टि से वह शब्द केवल वर्तमान भाव का ही बोधक होता हैं । परन्तु वर्तमान नाम, वर्तमान स्थापना और वर्तमान द्रव्य का बोधक नहीं होता है । क्योंकि नामादि में जो संकेतग्रह पूर्व में (पहले) हुआ हैं, उसमें अप्रामाण्यबुद्धि का जनक सांप्रतनय होता हैं ।
इसलिए यह बात भी फलित होती हैं कि, शब्दनय केवल भावनिक्षेपा का ही स्वीकार करता हैं ( (72) जैसे कि, शब्दनय “जिन” शब्द से जिन्हों ने रागद्वेष को जीते हैं, भूमि पर विचरण कर रहे हैं, ऐसे सर्वज्ञ - सर्वदर्शी भाव जिन 69. ऋजुसूत्राद् विशेषः पुनरस्येत्थं भावनीयः- यदुत संस्थानादिविशेषात्मा भावघट एव परमार्थसत् तदितरेषां तत्तुल्यपरिणत्यभावेनाघटत्वात् । अथवा लिङ्ग वचन सङ्ख्यादिभेदेनार्थभेदाभ्युपगमाद् ऋजुसूत्रादस्य विशेष (नयरहस्य) 70. शब्दस्त्रिभेदः साम्प्रतः समभिरूढ एवम्भूत इति । यथार्थाभिधानं शब्दः, नामादिषु प्रसिद्धपूर्वाच्छब्दादर्थे प्रत्ययः साम्प्रतः । XXXX तेष्वेव साम्प्रतेषु नामादीनामन्यतमग्राहिषु प्रसिद्धपूर्वकेषु घटेषु संप्रत्ययः साम्प्रतः शब्दः (तत्त्वार्थसूत्र भाष्य) 71. "तत्रापि ( नामादिषु) प्रसिद्धपूर्वात् - शब्दात् अर्थप्रत्ययः साम्प्रतः” इति साम्प्रतलक्षणम् । प्रतिविशिष्टवर्तमानपयांयापन्नेषु नामादिष्वपि गृहीतसंकेतस्य शब्दस्य भावमात्रबोधकत्वपर्यवसायीति तदर्थः तथात्वं च भावातिरिक्तविषयांश उक्तसङ्केतस्याऽप्रामाण्यग्राहकतया निर्वहति । 72. जो शब्द की जिस अर्थ को बताने की शक्ति हो उसी अर्थ को वह शब्द बोधित करता हैं बताता हैं । यह शब्दनय का स्वरूप हैं।
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