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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
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समभिरुढस्तु पर्यायभेदे भिन्नानर्थानभिमन्यते । अभेदं त्वर्थगतं पर्यायशब्दानुपेक्षत इति, यथा इन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छक्रः, पुर्दारणात्पुरन्दर इत्यादि ।
अर्थ : पर्यायवाची शब्दो में निरुक्ति (व्युत्पत्ति) के भेद से शब्दो के अर्थ में भेद माननेवाला अभिप्राय समभिरुढ नय हैं। शब्दनय पर्यायो के भेद में भी अर्थ का अभेद मानता है । परन्तु समभिरुढ नय पर्यायो के भेद में अर्थ IT भी भेद मानता हैं और अर्थ में जो पर्यायो का अभेद हैं, उसकी उपेक्षा करता हैं, जेसे कि इन्दन के कारण इन्द्र, शक्ति के कारण शक्र और नगर के विदारण करने के कारण पुरन्दर ।
कहने का आशय यह है कि, शब्दो के भेद से अर्थ का भेद प्राप्त होता हैं । वृक्ष और मनुष्य भिन्न शब्द हैं । उन दोनों के अर्थ भी भिन्न हैं । जो शब्दो के पर्याय कहे जाते हैं, वह भी भिन्न भिन्न शब्द है । शक्र, इन्द्र, पुरन्दर आदि शब्द भिन्न हैं, इसलिए उसका अर्थ भी भिन्न होना चाहिए । यहाँ ध्यान रखने जैसी एक बात यह है कि, जहाँ शब्द भिन्न होता हैं, वहाँ अर्थ का भेद होता हैं, इतना कहकर समभिरूढ नय अर्थो में भेद होने पर वाचक शब्दों के भेद को अनिवार्य कहता नहीं है । जहाँ अर्थ भेद होता है, वहाँ अवश्य वाचक शब्दो का भेद है, ऐसा समभिरूढ का अभिप्राय नहीं है । कोई शब्द ऐसे प्रकार का होता है कि, जिसके अर्थ अनेक होते है । जैसे कि 'गो' शब्द एक है, परन्तु उसके अर्थ गाय, वाणी, भूमि, किरण आदि अनेक है। उसी तरह से 'हरि' शब्द के भी अनेक अर्थ है । अनेकार्थक शब्दो में अर्थ का भेद तो हैं, परन्तु वाचक शब्द का भेद नहीं है । इसलिए समभिरूढ नय शब्द भेद होने पर अर्थ का भेद आवश्यक समजता हैं । जहाँ शब्दभेद है, वहाँ अर्थभेद हैं, यह नियम समभिरुढ नय के अनुसार से है ।
यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, अर्थ के भेद को केवल शब्द का भेद प्रकाशित करता हैं, ऐसा नहीं है । लक्षण और स्वरूप का भेद भी अर्थ के भेद को प्रकट करता हैं । किसी स्थान पे अर्थ का भेद शब्द के भेद से प्रतीत होता है और कोई स्थान पे लक्षण या स्वरूप के भेद से अर्थ का भेद प्रतीत होता हैं । घट और पट शब्द भिन्न है । इसलिए इस स्थान पर शब्द भेद के कारण अर्थ में भेद प्रतीत होता हैं । जिस स्थान पे “गो" शब्द गाय-भूमि आदि अनेक अर्थो को कहता है, उस स्थान पर स्वरूप का भेद या लक्षण का भेद अर्थ के भेद को प्रकट करता है । प्रस्तुत में शक्र, इन्द्र, पुरन्दर आदि शब्द भिन्न हैं, इसलिए उस शब्दो के अर्थ भी भिन्न होने चाहिए ऐसा समभिरूढ नय का अभिप्राय है ।
शब्दनय की मान्यता और समभिरुढ नय की मान्यता को स्पष्ट करते हुए नयकर्णिका ग्रंथ में कहा है कि - अर्थं शब्दनयोऽनेकैः पर्यायैरेकमेव च । मन्यते कुंभकलशघटाद्येकार्थवाचकाः ।। १४ ।।
ब्रूते समभिरुढोऽर्थं भिन्नं पर्यायभेदतः । भिन्नार्थाः कुंभकलशघटा घटपटादिवत् ।।१५।।
यदि पर्यायभेदेऽपि न भेदो वस्तुनो भवेत् । भिन्नपर्यायोर्न स्यात् स कुंभपटयोरपि ।। १६ ।। अर्थ
': शब्दनय अनेक पर्यायो का भी एक अर्थ मानता है अर्थात् शब्दनय पर्यायवाची शब्दो का भेद होने पर भी उन सब का अर्थ तो एक (अभेद) ही मानता है । उनके मतानुसार कुंभ, कलश, घट आदि शब्द एकार्थवाचक ही है । जब कि, समभिरुढ नय पर्याय के भदे से अर्थ को भिन्न मानता है, जैसे घट और पट, शब्द भिन्न होने से, उसके अर्थ भिन्न है, वैसे कुंभ, कलश, घट आदि शब्द भिन्न होने से उसके अर्थ भिन्न है । (उनके मतानुसार) यदि पर्यायवाची शब्दो के भेद में भी अर्थ (वस्तु का) भेद न हो, तो भिन्न-भिन्न पर्यायवाले, कुंभ और पट के बीच भी भेद नहीं रहेगा - दोनों अभिन्न हो
जायेंगे ।
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