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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद श्री विशेषावश्यक भाष्य में ( 77 ) ज्यादा स्पष्टता करते हुए कहा हैं कि, जो जो घटादि स्वरूप संज्ञा को कहते हैं, उस उस संज्ञा को कुट-कुंभादि संज्ञान्तरार्थ से विमुख रहकर (अर्थात् कुट-कुंभ आदि शब्द के वाच्यार्थ निरपेक्ष) अनुसरण करनेवाला जो अभिप्राय है, वह समभिरुढ नय कहा जाता है । समभिरुढ नय तत् तत् घटादि शब्द के वाच्यार्थ के रुप में घटादि अर्थो को ही विषय करता हैं । परन्तु घटादि शब्द के वाच्यार्थ के रुप में घटादि से अतिरिक्त अर्थो को विषय नहीं करता हैं । इसलिए वह प्रत्येक शब्द के वाच्यार्थ को भिन्न-भिन्न मानता है । इस कारण से अनेक अर्थ समभिरुढ के विषय बनते हैं । जो घट शब्द का वाच्यार्थ है, उसे कुंभ-कुट आदि पर्यायवाची शब्द का वाच्य समभिरुढ नय मानता नहीं हैं।
नय रहस्य (78) ग्रंथ में इस नय के स्वरूप की स्पष्टता करते हुए बताया है कि - घटपटादि अर्थो का तथा घट शब्दवाच्य विशिष्ट चेष्टायुक्त अर्थ, कुत्सित पूरणरूप कुंभ शब्दवाच्य अर्थ और कौटिल्य विशिष्ट कुट शब्द वाच्य अर्थो का संक्रमण न हो, इस तरह से गवेषण करने में तत्पर जो रहता है, इस अभिप्राय विशेष को समभिरुढ नय कहा जाता हैं ।
“घटादिरूप जो संज्ञा का उच्चारण होता हैं, वह संज्ञा के उपर जो सम्यग् आरोहरण करे" वह " समभिरुढ " शब्द का अर्थ है ऐसा अर्थ अनुयोगद्वार सूत्र - १५२ में किया है । कहने का आशय यह है कि, जो शब्द उच्चरित होता हैं, वह शब्द उसके व्युत्पत्ति अर्थ में ही प्रमाणरूप होता है । इसके मत में व्युत्पत्ति निमित्त ही प्रवृत्ति निमित्त माना जाता हैं । इसलिए घट शब्द से वाच्य जो अर्थ, वह कुट-कुंभ आदि शब्दो से वाच्य नहीं होता हैं ।
तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है कि, "सत्सु अर्थेषु असंक्रमः समभिरुढः " वर्तमानपर्यायापन्न घटादि रुप अर्थो में घटादि शब्दो का अपना अर्थ छोडकर अन्य अर्थो में संक्रम- गमन नहीं होता हैं। जैसे कि, घट शब्द का संकेत विद्यमान (घटन) चेष्टात्मक घटरूप स्वार्थ को छोडकर कुट-कुंभ आदि अर्थ का अभिधान नहीं करता हैं । क्योंकि कुट-कुंभादि अर्थ घट शब्द का अभिधेय नहीं हैं । यदि कुट-कुंभादि अर्थ भी घट शब्द का अभिधेय बन जाये तो सर्वसंकरादि दोष उपस्थित हो जायेगा । इसलिए एक शब्द के अभिधेय अर्थ उससे अन्य शब्द का अभिधेय नहीं होता है। समभिरुढ नय भी शब्दनय की तरह भावनिक्षेपा को ही स्वीकार करता हैं । (79) अब एवंभूतनय का स्वरूप देखेंगे । (७) एवंभूत :- इस नय का स्वरूप बताते हुए जैनतर्क भाषा में बताया है कि
शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविष्टमर्थं वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छन्नेवम्भूतः । यथेन्दनमनुभवन्निन्द्रः । ( 80 )
अर्थ : शब्दो की प्रवृत्ति में क्रिया निमित्त हैं । इस क्रिया से युक्त अर्थ को ही वाच्यरुप से स्वीकार करनेवाला एवंभूत हैं । जैसे कि, जैसे इन्दन क्रिया (आज्ञा देना आदि द्वारा जो ऐश्वर्य) का अनुभव करता इन्द्र 1
77.जं जं सण्णं भासइ तं तं चिय समभिरोहए जम्हा । सण्णंतरत्थविमुहो तओ णओ समभिरूढो त्ति ।। विशेषा. २२३६ ।। यां यां सज्ञां 'घटः' इत्यादिरुपां भाषते तां तामेव यस्मात् संज्ञान्तरार्थाभिमुखः कुटकुम्भादिशब्दवाच्यार्थनिरपेक्षः समभिरोहति तत्तद्वाच्यार्थविषयत्वेन प्रमाणीकरोति ततः - तस्मादर्थसमभिरोहणात् समभिरुढो नयः । यो घटशब्दवाच्योऽर्थस्तं कुटकुम्भादिपर्यायशब्दवाच्यं नेच्छत्यसावित्यर्थः। (अनेकांतव्यवस्था) 78. असङ्क्रमगवेषणपरोऽध्यवसाय विशेषः समभिरुढः । असङ्क्रमेति । तत्त्वं च यद्यपि न संज्ञाभेदेनार्थभेदाभ्युपगन्तृत्वं घटपटादिसंज्ञाभेदेन नैगमादिभिरपि अर्थभेदाभ्युपगमात्, तथापि संज्ञाभेदनियतार्थभेदाभ्युपगन्तृत्वं तत् । एवम्भूतान्यत्वविशेषणाच्च न तत्रातिव्याप्तिः । (नयरहस्य) 79. अस्यापि उपदर्शतितत्त्वो भावनिक्षेप एवाभिमतः ।। 80. शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाऽऽविष्टमर्थं वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छन्नेवंभूतः ।।७-४० ।। यथेन्दनमनुभवन्निन्द्रः, शकनक्रियापरिणतः शक्रः पूर्दारणप्रवृत्तः पुरन्दर इत्युच्यते । ७-४१ ।। शब्दानाम् - इन्द्रादिशब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तीभूतक्रिया -ऽऽविष्टमर्थं - इन्द्रादिशब्दप्रवृत्तौ निमित्तीभूता या इन्दनादिक्रिया तद्विशिष्टमर्थं यो वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छति, क्रियाऽनाविष्टं तु उपेक्षते स एवंभूतः । अयं हि इन्दनादिक्रियापरिणतमर्थं तत्क्रियाकाले इन्द्रादिशब्दवाच्यमभिमन्यते । समभिरूढस्तु इन्दनादिक्रियायां विद्यमानायामविद्यमानायां च इन्द्रादिशब्दवाच्यत्वमभिप्रैति इत्यनयोर्भेदः ।। ४० ।। (प्र.न. तत्त्वा.)
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