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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
४७१/१०९४
पज्जवनय तिअ अंतिमा रे; प्रथम द्रव्यनय चार । जिनभद्रादिक भासिआ रे, महाभाष्य सुविचार रे ।।८-१२।। सिद्धसेन मुख हम कहई रे, प्रथम द्रव्यनय तीन । तस ऋजुसूत्र न संभवइं रे, द्रव्यावश्यक लीन रे ।।८-१३।।
- श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी आदि महापुरुषो ने विशेष्यावश्यक भाष्य आदि ग्रंथो में पिछले तीन नयो तो पर्यायार्थिक नय और प्रथम के चार नयो को द्रव्यार्थिक नय के रुप में बताये हैं । श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी प्रमुख कुछ पू. आचार्य भगवंतो ने सम्मतितर्क इत्यादि ग्रंथ में प्रथम तीन - नयो को द्रव्यार्थिक नय कहे हैं और ऋजुसूत्रनय द्रव्यावश्यक को मानने के संभववाला नहीं हैं। ग्रंथकारश्री इस विषय की विशेष स्पष्टतायें स्वोपज्ञ टबें में करते हैं, उससे मंतव्यभेद स्पष्ट हो जायेगा ।
कहने का आशय यह है कि, द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय, ये दोनों नय नैगमादि सात नयो के अंदर, किस किस नयो में समाता हैं । उस बात के ऊपर श्वेतांबर आम्नाय में दो आचार्यों के अलग-अलग मत है । उन दोनों मतो की प्रक्रिया अब समजाते हैं ।(63)
नयो का विशेष वर्णन करने में श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी और श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी के नाम सुप्रसिद्ध हैं। श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणाजीने विशेषावश्यक महाभाष्य तथा विशेषणवती आदि महाग्रंथ बनाये हैं और वे 'सिद्धान्तवादी' के रुप में जैनशासन में प्रसिद्ध हैं । श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजीने 'सम्मति प्रकरण' और न्यायावतार आदि महाग्रंथ बनाये हैं और वे 'तर्कवादी' के रूप में जैनशासन में प्रसिद्ध हैं । उसके बाद श्री मल्लवादीजी, श्री हरिभद्रसूरिजी, श्री वादिदेवसूरिजी और कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्यजी आदि अनेक महात्मा शास्त्र विशारद और शास्त्र रचयिता हए हैं । द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिकनय ये सात नयो में से किस किस नयो में कौन-कौन सा नय अंतर्भाव पाये, इस बात में उपरोक्त मुख्य दोनों आचार्यों के विचार अलग अलग हैं । वहाँ प्रथम श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी के विचार बताते हुए ग्रंथकारश्री कहते हैं कि -
अंतिम जो नयो के ३ (तीन) भेद हैं कि जिसके नाम शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय है, वे तीनो नय पर्यायार्थिक नय कहलाते है और प्रथम जो चार नय है कि जिसके नाम नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र है, वे चारो नय द्रव्यार्थिक नय हैं अर्थात् द्रव्यार्थिक नय इन चारो नयो में समा जाता हैं । इस प्रकार श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणजी इत्यादि सिद्धान्तवादी आचार्य कहते है । यह बात उन्होंने अपने विशेषावश्यक भाष्य ग्रंथ में की है ।
तर्कवादी आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी तथा श्री मल्लवादी इत्यादि प्रथम के जो ३ नय है १. नैगम, २. संग्रह, ३. व्यवहार, ये ३ नयो को ही द्रव्यनय कहते हैं और १. ऋजुसूत्र, २. शब्दनय, ३. समभिरुढनय और ४. एवंभूतनय ये चार नय पर्यायार्थिक नय है, ऐसा कहते हैं।(64) सारांश कि, प्रथम के तीन नय दोनों आचार्य के मतानुसार द्रव्यार्थिक नय में समाते है और पिछले तीन नय दोनों आचार्य के मतानुसार पर्यायार्थिकनय में समाते है । इस बात में दोनों आचार्यों को विवाद नहीं है, एकमत है । केवल बीच के ऋजुसूत्र नय के बारे में ही विचारभेद हैं ।
63. नयमध्ये द्रव्यार्थिक - पर्यायार्थिक भेल्यानी आचार्यमत प्रक्रिया देखाऽई छई - अंतिमा कहतां-छेहला जे ३ भेद शब्द, समभिरुढ,
एवंभूतरूप ते पर्यायनय कहिइं, प्रथम ४ नय नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र लक्षण, ते द्रव्यार्थिकनय कहिई । इम जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण
प्रमुख सिद्धान्तवादी आचार्य कहई छई । महाभाष्य कहतां विशेषावश्यक, ते मध्ये निर्धारइं छई ।।८-१२।। (द्रव्य-गुण-पर्याय रास) 64.हिवइ, सिद्धसेनदिवाकर मल्लवादी प्रमुख तर्कवादी आचार्य इम कहई छई, जे प्रथम ३ नय-१ नैगम-२ संग्रह-३, व्यवहार लक्षण ते
द्रव्यनय कहिई । ऋजुसूत्र १ शब्द २ समभिरुढ ३. एवम्भूत ४, ए ४ नय पर्यायार्थिक कहिइ । (द्रव्य-गुण-पर्याय रास)।
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