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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट - ३, जैनदर्शन में नयवाद
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यहाँ उल्लेखनीय हैं कि, नैगम-संग्रह और व्यवहार : इन तीन नयो में नैगमनय सामान्य और विशेष उभय को ग्रहण करता है, इसलिए सम्मतितर्क ग्रंथ में सामान्यग्राही नैगमनय का संग्रहनय में और विशेषग्राही नैगम का व्यवहारनय में अन्तर्भाव किया है । संग्रहनय मात्र सामान्य को और व्यवहारनय मात्र विशेष को स्वीकार करता हैं । संग्रह और व्यवहारनय परस्पर सापेक्ष हैं । जब एक विधान में संग्रह की दृष्टि से संकोच करते जाये तब वह संग्रहनय की विचारधारा हैं । " इस जंगल में प्राणी बसते हैं" यह विधान विचारणा के स्तर में आये तब 'प्राणी' मात्र की दृष्टि से संग्रह को प्रधान बनाया जाये तब वह संग्रहनय का विचार बनता है और भिन्न-भिन्न प्राणीयों की दृष्टि से सोचने से विशेष की प्रधानता के योग से व्यवहारनय का विचार बनता I
श्री तत्त्वार्थ-भाष्य में व्यवहारनय के अभिप्राय की स्पष्टता करते हुए बताया हैं कि, समुदायव्यक्त्याकृतिसत्तासंज्ञादिनिश्चयापेक्षम् । लोकोपचारनियतं व्यवहारं विस्तृतं विद्यात् ।।३।।
समुदाय, व्यक्ति, आकृति, सत्ता, संज्ञा आदि के निश्चय की अपेक्षा रखनेवाला, लोकोपचार से नियत और विस्तृत व्यवहारनय जानना । तत्त्वार्थ भाष्य की महोपाध्याय श्री यशोविजयजी म. विरचित (54) टीका में... पूर्वोक्त श्लोक के प्रतिपद की व्याख्या करते हुए कहा है कि, समुदाय अर्थात् संघात । जैसे प्रासाद के व्यवहार विषयक ईंट, लकडी आदि का समुदाय, व्यक्ति अर्थात् अवयव के संयोग विशेष से जन्य अवयवी, आकृति अर्थात् अवयवो का आकार, जैसे कि, घटादि या मनुष्यादि की आकृति । सत्ता अर्थात् सभी में रहे हुए महासामान्यरुप सत्ता । संज्ञादि अर्थात् नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । यह समुदाय आदि का निश्चित जो निश्चय विशेष हैं, उसकी अपेक्षा रखनेवाला व्यवहारनय हैं । अर्थात् सर्व के विशेषो की अपेक्षा रखनेवाला व्यवहारनय हैं । इस व्यवहारनय के मतानुसार (नानिश्चितसामान्यरुपाः समुदायादयो व्यवहारक्षमाः) अनिश्चित सामान्यरूप समुदायादि व्यवहार चलाने में समर्थ नहीं है । व्यवहार तो निश्चित विशेषो से ही चलता लोक में दिखाई देता हैं ।
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उपरांत व्यवहारनय लोक में जो उपचार चलता हैं, उसमें नियत हैं । अर्थात्, पर्वत के उपर के तृणादि जलते होने पर भी " पर्वत जलता है ।" ऐसा लोग जो उपचार करते हैं, उस लोकोपचार को भी मान्य रखनेवाला (सत्य माननेवाला) व्यवहारनय हैं । विशेषावश्यक ग्रंथ के आधार से व्यवहारनय का स्वरूप और उसके भेद नयचक्रसारग्रंथ में विस्तार से बताया है, विस्तारभय से यहाँ संगृहीत किया नहीं हैं ( (55)
52. विशेषतोऽवह्रियते निराक्रियते सामान्यमनेनेति वा व्यवहारः । अयमुपचार- बहुलो लोकव्यवहारपरः । वच्च विणिच्छियत्थं ववहारो सव्वसव्वेसु (विशेषा. २९८३) इति सूत्रम् । व्यवहारः सर्वद्रव्येषु विचार्य विशेषानेव व्यवस्थापयतीति एतदर्थः । इत्थं विचारयति ननु 'सदिति यदुच्यते तद् घटपटादि-विशेषेभ्यः किमन्यन्नाम ? वार्तामात्रप्रसिद्धं सामान्यमनुपलम्भान्नास्त्येव । (अनेकान्तव्यवस्था) उपचारेण बहुलो विस्तृतार्थश्च लौकिकः । यो बोधो व्यवहाराख्यो नयोऽयं लक्षितो बुधैः ।। २५ ।। दह्यते गिरिरध्वास याति कुंभिका । इत्यादिरुपचारोऽस्मिन् बाहुल्येनोपलभ्यते ।। २६ । । विस्तृतार्थो विशेषस्य प्राधान्यादेष लौकिकः । पंचवर्णादिभृंगादौ श्यामत्वादिविनिश्चयात् ।।२७ ।। पंचवर्णाभिलापेऽपि श्रुतव्युत्पत्तिशालिनाम् । न तद्बोधे विषयताऽपरांशे व्यावहारिकी ।।२८।। 53. अस्यापि चत्वारो निक्षेपा अभिमता (नयरहस्य) 54. समुदायेत्यादि । समुदायः सङ्घातः प्रासादव्यवहारविषयकाष्ठेष्टकादीनामिव, व्यक्तिरवयवसंयोगविशेषजन्योऽवयवी, आकृतिः संस्थानमवयवानां, सत्ता महासामान्यम्, संज्ञादयो नामस्थापनाद्रव्यभावाः, एषां निश्चिताश्च ये निश्चया विशेषास्तानपेक्षतेऽभ्युपैति यः स तथा । एतस्य हि मते नानिश्चितसामान्यरूपाः समुदायादयो व्यवहारक्षमाः, निश्चितविशेषव्यतिरिक्तानां तेषामभावात् नहि समुदायादयस्त्रैलोक्यादिरूपाः समुदाय्यादिव्यतिरिक्ता अनुभूयन्ते, विशेषस्यैव स्वप्रत्यक्षत्वात्, अभाव इव भावेऽपि सामान्यस्य कल्पितत्वेन तुच्छत्वात् तादृशमपि च तद्वैज्ञानिकसम्बन्धेन सामान्यप्रत्यासत्तिघटकं स्वीक्रियते इति न व्याप्तिज्ञानादौ यावद्व्यक्ति-भानानुपपत्तिः । 55 संग्रहगृहीतवस्तुनोः भेदान्तरेण विभजनं व्यवहरणं प्रवर्त्तनं वा व्यवहारः । स द्विविधः शुद्धोऽशुद्धश्च । शुद्धो द्विविधः वस्तुगत व्यवहारः धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां स्वस्वचलनसहकारादिजीवस्य
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