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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद उपरांत व्यवहारनय विस्तृत हैं । अर्थात् उपचरित, अनुपचरित अर्थ का आश्रय करता होने से विस्तृत है । अर्थात् कुछ स्थान पर उपचार से व्यवहार प्रवर्तित हैं । जैसे कि धर्म के कारणभूत ऐसी क्रियाओं में धर्म का व्यवहार होता हैं और कुछ स्थान पर अनुपचित व्यवहार प्रवर्तित हैं । जैसे कि घटको ही व्यवहारघट कहते हैं । इसलिए व्यवहारनय उपचरित अनुपचरित तमाम अर्थ का आश्रय करता होने से विस्तृत हैं ।
(४) ऋजुसूत्र नय :- अब ऋजुसूत्रनय का स्वरूप बताते हुए जैनतर्क भाषा में कहा हैं कि,
ऋजु वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रं प्राधान्यतः सूचयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रः । यथा सुखविवर्तः सम्प्रत्यस्ति । अत्र हि क्षणस्थायिसुखाख्यं पर्यायमात्रं प्राधान्येन प्रदर्श्यते, तधिकरणभूतं पुनरात्मद्रव्यं गौणतया नार्प्यत इति । (56) ऋजु अर्थात् वर्तमान क्षण में स्थिर रहनेवाले पर्याय मात्र को प्रधानता से प्रकाशित करनेवाला अभिप्राय विशेष ऋजुसूत्रनय हैं । वस्तु के पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं । जब एक पर्याय वर्तमान होता हैं, तब पूर्वकाल का पर्याय अतीत और उत्तरकाल का पर्याय अनागत होता है । ऋजुसूत्रनय प्रधानता से वर्तमान पर्याय का बोध करता हैं और अतीत और अनागत पर्यायों की उपेक्षा करता है । उसी तरह से तीनों काल में रहनेवाले द्रव्य की भी उपेक्षा करता हैं । उदाहरण देकर समजाते हैं कि, "इस काल में सुखपर्याय हैं " - यहाँ एकक्षण में रहनेवाले सुख नाम के पर्याय मात्र को प्रधानता से प्रकाशित किया हैं । परन्तु उस पर्याय के अधिकरण आत्मद्रव्य की विवक्षा गौण होने के कारण नहीं की हैं। यद्यपि सुख - दुःखादि पर्याय आत्मद्रव्य को छोडकर कभी नहीं होते हैं। फिर भी जब पर्याय की प्रधानता से विवक्षा की जाती हैं और द्रव्य की गौणरूप में विवक्षा की जाती है, तब " अब (इस काल में) सुखविवर्त - सुखपर्याय हैं ।" ऐसा प्रयोग होता हैं । (यहाँ जैसे सुखपर्याय की विवक्षा की, वैसे दुःखपर्याय की विवक्षा भी स्वयं सोच लेना ।) सारांश में, ऋजुसूत्रनय अतीत- अनागतकालीन और परकीय वस्तु की उपेक्षा करके वर्तमानकालीन और स्वकीय पर्याय की प्रधानता से विवक्षा करनेवाला अध्यवसाय विशेष 1
ऋजुसूत्रनय की मान्यता : (इस नय के बारे में विशेष बातें उसकी मान्यता को बताते भिन्न-भिन्न ग्रंथ में जो खुलासे किये हैं, उससे स्पष्ट होगा । अब वही देखेंगे ।) - समर्थ शास्त्रकार शिरोमणी पू. आ. भ. श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी
लोकालोकादिज्ञानादिरूपः स्वसम्पूर्णपरमात्मभावसाधनरूपो गुणसाधकावस्थारूपः गुणश्रेण्यारोहादिसाधनशुद्धव्यवहारः । अशुद्धोऽपि द्विविधः सद्भूतासद्भूतभेदात् । सद्भूतव्यवहारो ज्ञानादिगुणः परस्परं भिन्नः, असद्भूतव्यवहारः कषायात्मादि मनुष्योऽहं देवोऽहं । सोऽपि द्विविधः संश्लेषिताशुद्धव्यवहारः शरीरं मम अहं शरीरी । असंश्लेषितासद्भूतव्यवहारः पुत्रकलत्रादि मम । तो च उपचरितानुपचरितव्यवहारभेदात् द्विविधौ । तथा च विशेषावश्यके "ववहरणं ववहरए स तेण ववहीरए व सामन्त्रं । ववहारपरो व जओ विसेसओ तेण ववहारो ।।" (विशे. २२१२) व्यवहरणं व्यवहारः व्यवहरति स इति वा व्यवहारः, विशेषतो व्यवह्नियते निराक्रियते सामान्यं तेनेति व्यवहारः, लोको व्यवहारपरो वा विशेषतो यस्मात्तेन व्यवहारः । न व्यवहारास्व ( रस्य ) स्वधर्मप्रवर्तितेन ऋते सामान्यमिति स्वगुणप्रवृत्तिरूपव्यवहारस्यैव वस्तुत्वं तमन्तरेण तद्भावात् ( ? ) । स द्विविधः विभजनप्रवृत्तिभेदात् । प्रवृत्तिव्यवहार स्त्रिविधः वस्तुप्रवृत्तिः साधनप्रवृत्तिः लोकप्रवृत्तिश्च । साधनप्रवृत्तिश्च त्रिधा: लोकोत्तर-लौकिक-कुप्रावचनिकभेदात् इति व्यवहारनयः श्री विशेषावश्यके ।। "उज्जुं रुजुं सुयं नाणमुज्जुसुयमस्स सोऽयमुज्जुसुओ । सुत्तयइ वा जमुज्जुं वत्थं तेणुज्जुसुत्तोत्ति ।। " ( विशे. २२२२) ( नयचक्रसार) 56.ऋजु-वर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमात्रं प्राधान्यतः सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रः ।।७-२८ ।। यथा सुखविवर्तः सम्प्रत्यस्तीत्यादिः ।।७-२९।। ऋजु- -अतीतानागतकालक्षणलक्षणकौटिल्यवैकल्यात् सरलम् । अयं भावः योऽभिप्रायविशेषो वर्तमानक्षणस्थितपर्यायानेव प्राधान्येन दर्शयति तत्र विद्यमानद्रव्यं गौणत्वान्न मन्यते स ऋजुसूत्रः ।। २८ । । यद्यपि सुख - दुःखादयः पर्याया आत्मद्रव्यं विहाय कदापि न भवन्ति, तथापि पर्यायस्य यदा प्राधान्येन विवक्षा क्रियते द्रव्यस्य च गौणत्वेन तदा भवत्येवं प्रयोगः “सुखविवर्तः सम्प्रत्यस्ति" इति, एवं दुःखपर्यायोऽधुना वर्तते इत्यादिकमूहनीयम् ।।२९।। (प्र.न. तत्त्वा.)
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