________________
षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
४६३/१०८६
'सत्' रूप से प्रतीत होता हैं । पदार्थों में परस्पर भेद हैं, परन्तु कोई भी पदार्थ असत् नहीं हैं । सत् और असत् का विरोध हैं। जीव आदि में से यदि कोई पदार्थ असत् हो, तो वह सत् रूप से प्रतीत नहीं होना चाहिए । सत् होने से वह असत् नहीं हो सकता । द्रव्यादि कोई भी पदार्थ हो, परन्तु कोई भी पदार्थ सत्त्व के बिना अपने भिन्न स्वरूप में वह नहीं रह सकते हैं। इसलिए समस्त विशेषो में सत्त्व अनुगत हैं । इसलिए ही द्रव्य हैं । तदुपरांत जब तक 'सत्' रुप का ज्ञान न हो, तब तक कोई भी विशेष का ज्ञान नहीं होता हैं । तदुपरांत, 'सत्त्व' का भेदो के साथ विरोध नहीं हैं । जीवादि पदार्थ परस्पर भिन्न होने पर भी समानतया 'सत्' प्रतीत होते हैं । पूर्वोक्त अनुमान में पर्याय और गुण के बिना प्रतीत होता होने से सत्त्व सामान्य शुद्ध हैं । इसलिए ही सम्मतितर्क की टीका में संग्रहनय की व्याख्या करते हुए कहा है कि, शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य संग्रहः।
इस नय की मान्यता को स्पष्ट करते हुए अनेकांत व्यवस्था में कहा हैं कि,(41) सत्ता (सभी पदार्थो में रहा हुआ सत्त्व) सर्व पदार्थों में रहता है । इसलिए अव्यभिचारी तत्त्व हैं । जो सभी के लिए अव्यभिचारिरुप हैं - वही पारमार्थिक रुप हैं अर्थात् 'सत्ता' सभी पदार्थों में अव्यभिचरित रूप से वृत्ति हैं । इसलिए पारमार्थिक रुप हैं । (जो रुप एक स्थान पे वृत्ति हो और अन्य स्थान पे अवृत्ति हो, वह रूप व्यभिचारी हैं।) जो व्यभिचारी हो वह प्रबुद्ध (उजागर बनी हुए) वासनाविशेष के साथ उपस्थिति होने पर भी) अपारमार्थिक है अर्थात् पदार्थ में रहे हुए ‘सत्त्व' रूप के साथ वासना विशेष से चाहे जितने दूसरे रूप उपस्थित होते हो, तो भी वह सत्त्व की तरह अव्यभिचरित नहीं है अर्थात् ‘सत्त्व' जिस तरह से
अबाधितरुप से सभी पदार्थो में वृत्ति हैं उसी तरह से 'सत्त्व' के साथ उपस्थित हुए दूसरे रुप (धर्म) सर्व पदार्थों में वृत्ति नहीं है । इसलिए सर्व पदार्थो में वृत्ति 'सत्त्व' अव्यभिचारी है और इसलिए पारमार्थिक है । उसके सिवा अन्य रुप अपारमार्थिक हैं । इसलिए परसंग्रह नय की मान्यता अनुसार 'सत्ता' एक ही पारमार्थिक तत्त्व हैं और “सत्ता" के अपेक्षा से सर्व पदार्थ एक हैं, यह परसंग्रहनय की दृष्टि हैं ।
(२) अपरसंग्रहनय :- अपरसंग्रहनय का स्वरूप बताते हुए जैनतर्कभाषा में कहा हैं कि द्रव्यत्वादीन्यवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तद्भेदेषु गनिमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसंग्रहः ।।42)
द्रव्यत्व आदि अवान्तर (अपर) सामान्यो का स्वीकार करनेवाला और उसके भेदों में (विशेषों में) 'गजनिमिलिका' न्याय से उपेक्षा करनेवाला अभिप्राय अपर संग्रहनय हैं ।
अपर संग्रहनय की अपेक्षा से जीव आदि छः पदार्थो में द्रव्यत्व सामान्यतः व्याप्त हैं । इसलिए जीव आदि छ: पदार्थ एक द्रव्यरूप हैं । उसी तरह से चेतन और अचेतन द्रव्यो के पर्यायो में पर्यायत्व नाम का अपर सामान्य हैं, उस कारण से सर्व पर्याय एक हैं।
अपर संग्रहनय का उदाहरण देते हुए प्रमाणनयतत्त्वालोक में कहा हैं कि - धर्माधर्माऽऽकाश-काल-पुद्गल - जीवद्रव्यणामैक्यं द्रव्यत्वाभेदादित्यादिर्यथा ।।७-२०।। अर्थ (पूर्ववत्) स्पष्ट हैं ।
"यह द्रव्य है, यह द्रव्य है" इत्याकारक ज्ञान-नाम स्वरूप लिंग से अनुमित द्रव्यत्व धर्मास्तिकायादि छ: द्रव्यो में विद्यमान हैं। इसलिए द्रव्यत्वेन छ: पदार्थ एक हैं, ऐसा कथन अपर संग्रहनय का हैं ।
41.सत्तायाः सर्वपदार्थाव्यभिचारात् । यदेव च सर्वाव्यभिचाररूप तदेव पारमार्थिकं यच्च व्यभिचारं तत् प्रबुद्धवासानाविशेषनान्तरीयकोपस्थितिकमप्यपारमार्थिकम् (अनेकांतव्यवस्था) 42. द्रव्यत्वादीनि अवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तद्-भेदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमाना पुनरपरसंग्रहः ।। (प्र.न.तत्त्वालोक-७-१९)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org