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• संग्रहनय की मान्यता :- संग्रहनय की मान्यता बताते हुए श्री नयकर्णिका में कहते हैं कि
षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद पू. श्री विनयविजय महाराजजी
संग्रहो मन्यते वस्तु सामान्यात्मकमेव हि । सामान्यव्यतिरिक्तोऽस्ति न विशेषः खपुष्पवत् ।।६।।
- संग्रहनय मानता है कि, वस्तु सामान्य स्वरूप ही हैं । सामान्य से अतिरिक्त विशेष ही नहीं है । जैसे आकाश कुसुम असत् है, वैसे सामान्य से अतिरिक्त विशेष भी असत् हैं । यहाँ याद रखना कि विशेषो का सामान्य में अन्तर्भाव कर सामान्य को प्रधानता देकर यह कथन किया गया हैं ।
संग्रहनय की इस दृष्टि को ज्यादा स्पष्ट करते हुए अनुयोगद्वार सूत्र - श्री हारीभद्रीयविवृत्ति में कहा गया है कि
यदि विशेष सामान्य से अतिरिक्त हो, तो हम को हमारे प्रश्न का जवाब दो कि, क्या विशेष सामान्य से अर्थान्तरभूत (अलग अर्थ स्वरूप ) है ? या अनर्थान्तरभूत है ? (अलग अर्थ स्वरूप नहीं हैं ?) (39)
यदि विशेष अर्थान्तरभूत हैं, तो सामान्य से अर्थान्तर होने से ( सामान्य के बिना) उसका अस्तित्व ही न हो । इसलिए वह (विशेष) (सामान्य के बिना) ही नहीं हैं और यदि विशेष अनर्थान्तरभूत हैं, तब तो वह सामान्य ही हैं । उससे अतिरिक्त नहीं है । इसलिए सामान्य से अतिरिक्त विशेष नहीं हैं ।
- संग्रहनय के प्रकार :- ( १ ) परसंग्रहनय : इस नय का स्वरूप बताते हुए जैनतर्कभाषा में कहा हैं कितत्राशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानं शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परः संग्रहः । यथा- विश्वमेकं सदविशेषादिति । (40)
उसमें सभी विशेषो में उदासीनता को धारण करनेवाला और मात्र शुद्ध द्रव्य 'सत्' को स्वीकार करनेवाला परसंग्रह नय कहा जाता है । जैसे कि, “विश्व एक है, क्योंकि सत् रूप से भेद (विशेष) नहीं है ।" विश्वमेकं सदविशेषात् । - विश्व एक स्वरूप हैं । क्योंकि ‘सत्' इत्याकारक ज्ञान- नाम द्वारा अविशेष (सामान्य) रुप से मालूम होता हैं । इस अनुमान द्वारा सकल विशेषों में उदासीनता को अवलंबित करता, “सत्ता" अद्वैत को स्वीकार करता अभिप्राय विशेष परसंग्रह नय हैं ।
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पूर्वोक्त अनुमान में “सदविशेष" इस लिंग से अनुमित (एक सत्ताकत्वेन) एकत्व सभी पदार्थो का संग्रह करता है । अर्थात् सभी पदार्थो में रही हुई 'यह सत् हैं, यह सत् हैं' ऐसे ज्ञान में कारणभूत सत्ता, उस 'सत्ता' धर्म को प्रधान बनाकर सभी पदार्थों को एक में संग्रहीत करता हैं, वह संग्रहनय हैं I
कहने का आशय यह हैं कि, जीव, अजीव आदि जीतने चेतन और अचेतन पदार्थ हैं । वे सभी "सत्ता” रूप साधारण धर्म की अपेक्षा से एक हैं । जीव आदि जो भी विशेष हैं, उसमें किसी का भी स्वभाव असत् नहीं हैं । सभी पदार्थ
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39. तथा च मन्यते - विशेषाः सामान्यतोऽर्थान्तरभूताः स्युः ? अनर्थान्तरभूता वा ? यद्यर्थान्तरभूताः न सन्ति सामान्यादर्थान्तरत्वात्, खपुष्पवत् । अथानर्थान्तरभूताः, सामान्य मात्रं तदव्यतिरिक्तत्वात्, स्वरूपवत् ।
40. अशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परसंग्रहः ।।७-१५ ।। विश्वमेकं सदविशेषादिति यथा ।। ७-१६।। विश्वं जगत्, एकम्-एकरसं, सदविशेषात् 'सत्' इत्याकारक ज्ञानाभिधानाभ्यामविशेषरूपेण ज्ञायमानत्वात् अनेनानुमानेन सकलविशेषेष्वौदासीन्यमवलम्बमानः सत्ताद्वैतं स्वीकुर्वाणोऽभिप्रायविशेषः परसंग्रहः ।। (प्र.न. तत्त्वा) ।। अस्मिन्नुक्ते हि सदिति ज्ञानाभिधानानुवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताकत्वेनैकत्वेनैकत्वमशेषार्थानां संगृह्यते ।। ( नयामृतम् - पृ-७७)
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