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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद
४६१/१०८४ सकेंगे, यानी घटाकारता ही अयुक्त हो जाने का प्रसंग आयेगा । यदि यह शङ्का हो कि स्थापना घट को भी यदि घट ही मानेंगे तो वास्तविक घट की अपेक्षा स्थापना घट में क्या विशेषता होगी ? - तो इस का समाधान यह है कि स्थापना घट मुख्य घट की प्रतिकृति है, मुख्य घट से जो जलाहरणादि अर्थ क्रिया होती है वह स्थापना घट से नहीं हो सकती । इसलिए चित्रादि में मुख्य अर्थ का अभाव है, यही स्थापना घट और मुख्य घट में विशेषता है ।
घट के उपादान कारण मृत-पिण्डादि को द्रव्यघट या घट का द्रव्य निक्षेप कहते हैं । यदि मृत पिण्डादिरूप द्रव्य को घट न माना जाय तो घट मृतपिण्ड का परिणाम है और मृत पिण्ड घट का परिणामी है, इस तरह का परिणाम-परिणामी भाव, घट और मृतपिण्ड इन दोनों में नहीं होगा । इसलिए द्रव्यघट को भी घट मानना चाहिए और इन दोनों में कथञ्चिद अभेद भी मानना चाहिए । अत्यन्त भेद मानने पर दोनों का परिणाम-परिणामी भाव ही नहीं बनेगा । जलाहरण साधनीभूत कम्बूग्रीवादिमान् घट को भावघट कहते हैं, इसी को भावनिक्षेप भी कहते हैं । कारण, इस में घट के गुण और पर्याय विद्यमान रहते हैं । यह सभी को मान्य है, इसलिए भावघट में घट पद की वृत्ति यानी शक्ति नामक संबंध होने में किसी को भी संदेह नहीं है । भाव निक्षेप को भी नैगमनय मानता है । इस तरह चारों निक्षेप नैगमनय को मान्य है । और इसके साथे नैगमनय का वर्णन भी पूर्ण होता है ।
(१) संग्रहनय : संग्रहनय का स्वरूप समजाते हुए और उसके प्रकार बताते हुए जैनतर्कभाषा में कहा है कि, सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संगहः - स द्वेधा, परोऽअपरश्च ।(33)
- 'सामान्य' मात्र को ग्रहण करनेवाले अभिप्राय को संग्रह नय कहा जाता है । वह संग्रहनय दो प्रकार के हैं । (१) परसंग्रह नय और (२) अपरसंग्रह नय ।
प्रत्येक पदार्थ सामान्यात्मक और विशेषात्मक है । संग्रहनय वस्तु के सामान्य धर्म को ग्रहण करता है । यहाँ याद रखना कि, जब सामान्य का ज्ञान होता हैं, तब विशेषो का भी ज्ञान होता हैं । परन्तु विशेषरूप से ज्ञान नहीं होता हैं । उस काल में विशेष भी सामान्यरूप से प्रतीत होता हैं । संग्रहनय सामान्य प्रतिपादन परक "यह सत् है" इस तरह से सामान्य को ही स्वीकार करता हैं, परन्तु विशेष को नहीं ।(34) नय रहस्य ग्रंथ में ज्यादा स्पष्टता करते हुए कहा हैं कि, नैगमादि नय द्वारा स्वीकृत अर्थ को संग्रह करने में (अर्थात् उस पदार्थों के सामान्य धर्म को पुरस्कृत करके एक में संग्रह करने में) तत्पर अध्यवसाय विशेष को संग्रहनय कहा जाता हैं ।(35) सामान्यरूपतया सर्व वस्तुओं का संग्रह करे उसे संग्रहनय कहा जाता हैं ।(36) इस प्रकार अनेकांत-व्यवस्था में महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा ने बताया हैं ।
संग्रहनय के वचन में “सत्ता" नाम के महासामान्य भाव से युक्त पदार्थ का संग्रह हुआ होता हैं । संग्रहनय ने सभी विषयो को सामान्य में अन्तर्भाव करके सामान्य का ही स्वीकार किया हुआ होता हैं ।(37) कहने का आशय यह है कि, सभी विशेषो का विरोध (निषेध) किये बिना उन सभी विशेषो का सामान्य में अन्तर्भाव करके सत्तात्वेन सर्व पदार्थों को एक मानना वह संग्रहनय की दृष्टि हैं ।(38)
33.सामान्यमात्रग्राही परामर्श: संग्रहः ।। अयमुभयविकल्प: परोऽपरश्च ।।१३-१४ ।। (प्रमाणनयतत्त्वालोक) 34. एतदुक्तं भवति -
सामान्यप्रतिपादनपर: खल्वयं सदित्युक्ते सामान्यमेव प्रतिपद्यते, न विशेषम् । (अनुयोगद्वार सूत्र-श्री हारीभद्रीय विवृत्ति) 35. नैगमाद्युपगतार्थसङ्ग्रहप्रवणोऽध्यवसायविशेष: संग्रह: । (नयरहस्य) 36. संग्रहणं = सामान्यरुपतया सर्ववस्तूनामाक्रोडनं संग्रहः । संगृह्णाति सामान्यरूपतया वा सर्वमिति वा संग्रहः । 37. सगृहीत: - सत्ताख्यमहासामान्यभावमापन्नोऽर्थो यस्य तत्तथा संग्रहवचनम् । अन्तःक्रोडीकृतसर्वविशेषस्य सामान्यस्यैव तेनाभ्युपगमात्। (अनेकान्त - व्यवस्था) 38. स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपनीयार्थानाक्रान्तभेदात् समस्तसंग्रहणात् सङ्ग्रहः । (नयप्रकाशस्तव) । सामान्यवस्तुसत्तासङ्ग्राहकः संग्रहः (नयचक्रसार)
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