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षड् समु. भाग-२, परिशिष्ट - ३, जैनदर्शन में नयवाद इसी तरह एक वस्तु में अनंता धर्म रहे हुए होते हैं, उस अनेक धर्मो अंशोवाली वस्तु के किसी अंश विशेष का ज्ञान जिसके द्वारा उसे निर्भासक - नय कहा जाता है । जैसे ग्वाला अपनी गाय को अपने गोष्ठ की दिशा में मोड़ता है, वैसे वक्ता वस्तुगत अपने इच्छित अंश को पकडकर जो अध्यवसाय विशेष से वस्तु का ज्ञान करता है, उस वक्ता के अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता हैं ।
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(५) उपलम्भकत्वं प्रतिविशिष्टक्षयोपशमापेक्षसूक्ष्मार्थावगाहित्वम् ।
प्रतिविशिष्ट क्षयोपशम की अपेक्षा से सूक्ष्मार्थ अवगाही ज्ञान को उपलंभक कहा जाता है और यह भी नय का लक्षण है । इतर इतर धर्मो के क्षयोपशम की व्यावृत्ति करने द्वारा वस्तु के कोई एक निश्चित धर्म में प्रवर्तित क्षयोपशम विशेष को प्रतिविशिष्ट क्षयोपशम कहा जाता है है । ऐसे प्रतिविशिष्ट क्षयोपशम के आश्रय में वस्तु के सूक्ष्म अर्थ (अंश) का ग्रहण जिस ज्ञान से होता है उसको उपलंभक अर्थात् नय कहा जाता हैं । जैसे कि, वस्तु के इतर धर्म विषयक क्षयोपशम को बाजू पर रखकर एक निश्चित " नित्यत्व" आदि धर्म में प्रवर्तित क्षयोपशम विशेष से वस्तु के सूक्ष्म अंशका ज्ञान जिससे होता है, उसको नय कहा जाता हैं ।
(६) व्यञ्जकत्वं प्राधान्येन स्वविषयव्यवस्थाप
प्रधानता से "स्व" विषय के व्यवस्थापक को व्यंजक कहा जाता है और उसको ही नय भी कहा जाता हैं
अपने अभिप्राय विशेष से वस्तु के किसी एक निश्चित स्वरूप को स्पष्ट करे, उसे व्यंजक अर्थात् नय कहा जाता हैं । वस्तु अनंतधर्मात्मक है, उसमें से प्रधानतया (प्रधानरूप से) किसी एक धर्म (अस्तित्व आदि धर्म) का व्यवस्थापन करे उसे व्यंजक = नय कहा जाता हैं । प्रस्तुत नय वस्तु के अन्य धर्मो का निषेध नहीं करता है, परन्तु अपने को अभिप्रेत अंश का प्रधानतया व्यवस्थापन करता है और अन्य धर्मो का गौणरूप से व्यवस्थापन करता हैं ।
विशेष में, प्रमाण नयतत्त्वालोक (७. ५३) में कहा है कि नय वाक्य और प्रमाण वाक्य स्व-स्व विषय में प्रवृत्ति काल में विधि और निषेध की कल्पना द्वारा सप्तभंगी का अनुसरण करते है । इस विषय की विशेष विचारणा "जैनदर्शन में सप्त भंगी” प्रकरण में करेंगे । उपरांत, याद रखना कि, जैनदर्शन में कुछ भी (सूत्र या उसका अर्थ ) नयविहीन नहीं होता है, नययुक्त ही होता है । ( 12 )
नय का सामान्य स्वरूप देखा । अवसर प्राप्त नयाभासका स्वरूप देखेंगे । वह बताते हुए प्रमाणनयतत्त्वालोक में कहा है कि, "स्वाभिप्रेतादंशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः ।।७ - २।। जो अभिप्राय विशेष अपने इच्छित अंश को पुरस्कृत करे और वस्तु के इतर अंशो का अपलाप करे, उसको नयाभास (दुर्नय) कहा जाता हैं । नित्यत्वादि धर्मो का एकांत से विधान करनेवाला अभिप्राय विशेष दुर्नय कहा जाता हैं । जैसे कि, " आत्मा नित्य ही है, अनित्य हैं ही नहीं " अथवा “आत्मा अनित्य ही है, नित्य है ही नहीं ।" ऐसे एकांत से दूषित बने हुए अभिप्राय विशेष को ( 13 ) (ज्ञानां श को ) नयाभास = दुर्नय कहा जाता हैं । नयाभासों का विशेष स्वरुप आगे बताया जायगा ।
नय के मुख्य भेद : नय के भेद - प्रकार को बताते हुए प्रमाणनयतत्त्वालोक में बताते है कि,
'स व्यास - समासाभ्यां द्विप्रकारः । । ७-३ ।। '
12. नत्थि नएहिं विहूणं सुत्तं अत्थो अ जिणमए किंचि । आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूया । । विशेषावश्यकभाष्य- २७७।। 13. नयास्तु पदार्थज्ञाने ज्ञानांशा, तत्रानन्तधर्मात्मके वस्तुन्येकधर्मोन्नयनं ज्ञानं नयः इतरांशप्रतिक्षेपाभिमुखं ज्ञानं दुर्नयः ।।
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