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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-३, जैनदर्शन में नयवाद भावार्थ : 'सत्' द्रव्य का लक्षण हैं । स्वकीय गुण-पर्यायो को जो प्राप्त करते हैं, उसे 'सत्' कहा जाता हैं । अर्थात् जो गुण-पर्याय से युक्त है उसे द्रव्य कहा जाता हैं । (सहभावी धर्मो को गुण कहा जाता है और क्रमभावी धर्मो को पर्याय कहा जाता है । द्रव्य को धर्मी कहा जाता हैं ।) उत्पाद, नाश और स्थिरता - ये तीन से युक्त हो उसे 'सत्' कहा जाता है और वही द्रव्य हैं । (इस विषय की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत ग्रंथ की जैनदर्शन की श्लोक-५७ की टीका में की ही हैं ।) उत्पादादि तीन का स्वरूप समजाते हुए(15) 'नय प्रकाशस्तव' ग्रंथ में कहा हैं कि, “वस्तु पहले जो पर्यायरूप में न हो, उस पर्यायरूप में लाभ होना उसे "उत्पाद" कहा जाता है । जो पर्यायरूप में हो, उस पर्याय की सत्ता का विरह होना उसे "नाश" कहा जाता है और द्रव्यरूप से प्रत्येक पर्याय में अनुवर्तन होना उसे “स्थिति" कहा जाता हैं । जैसे कि, मिट्टी की अवस्था में पृथुबुध्नोदरादि आकार रुप में घट असत् था अर्थात् मिट्टी की अवस्था में तादृश आकाररुप पर्याय नहीं था, उस (नूतन) पर्याय का लाभ होना उसे उत्पाद कहा जाता हैं । उस अवस्था में घट में उत्पत्तिमत्त्व आता हैं । तादृश आकाररूप पर्याय का विरह होना उसे "नाश" कहा जाता हैं । उस अवस्था में घट में नाशवत्त्व आता है और उन दोनों अवस्था में द्रव्यरूप से घट का अनुवर्तन होना उसे "स्थिति" कहा जाता हैं । इसलिए घट में स्थितिमत्त्व आता हैं । इस तरह से जगत के सभी पदार्थ उत्पादादि त्रयात्मक ही है अर्थात् उत्पादादि त्रयात्मक वस्तु को द्रव्य कहा जाता हैं। उपरांत द्रव्य रूप से सभी वस्तुओं की स्थिति ही होती है और पर्याय रूप से सभी वस्तुओं की उत्पत्ति और विनाश होता हैं ।
द्रव्य का अन्य लक्षण करते हुए बताते हैं कि - जो अर्थक्रियाकारि हो उसे 'सत्' कहा जाता हैं । प्रत्येक वस्तु की अपनी एक विशिष्ट क्रिया होती है कि जिस क्रिया से उस वस्तु की पहचान होती हैं । उस विशिष्ट क्रिया को "अर्थक्रिया" कहा जाता हैं और अर्थक्रिया से युक्त जो हो, उसे सत् अर्थात् द्रव्य कहा जाता है । जैसे कि, “जलधारण" क्रिया घट की एक विशिष्ट क्रिया है । उस क्रिया के द्वारा ही घट की पहचान होती हैं । इसलिए घट अर्थक्रिया से युक्त द्रव्य हैं।
द्रव्य का अन्य लक्षण करते हुए कहते है कि... अपने अपने प्रदेशो के समूह द्वारा अखंडवृत्ति से - अविच्छिन्न रूप से स्वाभाविक और वैभाविक पर्यायो को जो पाता है, भविष्य में जो पायेगा और भूतकाल में जो पाता था, उसे द्रव्य कहा जाता है । तदुपरांत, गुण-पर्याय से युक्त वस्तु को द्रव्य कहा जाता है अथवा गुणो के आश्रय को भी द्रव्य कहा जाता हैं ।
पूर्वोक्त स्वरूपवाले द्रव्य के छः प्रकार है । (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) पुद्गल, (५) जीव, (६) काल : यह छ: द्रव्यो के स्वरूप जैनदर्शन के निरुपण में पहले बताया ही है और परिशिष्ट में दिये गये विशेषार्थ में विस्तार से बताया है। यह जगत षड्द्रव्यात्मक है ।
प्रश्न : द्रव्य के स्वाभाविक और वैभाविक पर्याय क्या है ? और द्रव्य के स्वाभाविक और वैभाविक पर्याय कौन से है?
उत्तर : जिसका जो स्वभाव है, उस स्वभाव का उस स्वरूप से ही प्रतिक्षण परिणमन होता है, उस स्वभाव को "स्वभावपर्याय" कहा जाता है अर्थात् वस्तु का स्थिर स्वभाव कि जो प्रतिक्षण उस स्वरूप में ही परिणमन पाये, परन्तु कभी भी अन्यथा स्वरूप में परिणमित नहीं होता है. उसे "स्वभावपर्याय" कहा जाता हैं । जो पर्व स्वभाव के 15. तत्र असत आत्मलाभ: उत्पत्तिः, सत: सत्ताविरहो नाशः, द्रव्यतयानुवर्तनं स्थितिः । तत्र घटस्य मृत्पिण्डाद्यवस्थायां पृथुबुध्नोदराद्या
कारत्वेनासतस्तत्स्वरूपात्मलाभादुत्पत्तिमत्त्वम्, अथ तत्त्वेन सतस्तदभिन्नस्तदाकारविराहान्नाशवत्त्वम्, तथाऽनुवृत्ताकारनिबन्धनरुपद्रव्यतयाऽनुवर्तनात्स्थितिमत्त्वम् । एवं सकलार्थानामप्येतत्त्रयात्मकत्वमेव ।
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