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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
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कहा है
तदुपरांत, भविष्यकाल यह भूतकाल जितना ही तुल्य नहीं है परन्तु अनन्त गुण हैं, इसलिए ही मूल गाथा में कि भूतकाल में अनन्त पुद्गल परावर्त्त व्यतीत हुए है और भविष्यकाल में उससे भी अनन्तगुना सूक्ष्म क्षेत्र पु० परा० व्यतीत होनेवाले हैं अर्थात् उस व्यतीत हुए अनन्त सू० क्षे० पु० परा० से भी अनन्त गुण सू० क्षे० पु० परा० जितना भविष्यकाल है ।
सिद्ध के १५ भेद (77) जिनसिद्ध अजिन सिद्ध तीर्थ सिद्ध
अतीर्थ सिद्ध गृहस्थ सिद्ध - अन्यलिंग सिद्ध - स्वलिंग
सिद्ध स्त्री सिद्ध पुरुष सिद्ध नपुंसक सिद्ध प्रत्येकबुद्ध सिद्ध
स्वयंबुद्ध सिद्ध बुद्ध बोधित सिद्ध - एक सिद्ध और
अनके सिद्ध - ये सिद्ध के १५ भेद है । यह कहे गये १५ प्रकार के सिद्ध यद्यपि सर्वथा भिन्न भिन्न नहीं है परन्तु एक दूसरे में अन्तर्गत है, तो भी विशेष बोध के लिए १५ भेद अलग अलग कहे है । वहाँ प्रथम इन १५ भेद का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार से हैं - (१) जिनसिद्ध तीर्थंकर पदवी प्राप्त करके मोक्ष में जाये वह अर्थात् तीर्थंकर भगवंत जिनसिद्ध कहे जाते हैं । (२) अजिनसिद्ध - तीर्थंकर पदवी प्राप्त किये बिना सामान्य केवलि होकर मोक्ष में जाये वह । (३) तीर्थसिद्ध श्री तीर्थकर भगवंत स्वयं को केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद तुरंत देशना समय में मिली हुई पहली जो परिषद में गणधर की तथा साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना करते है, वह श्री गणधर तथा चतुर्विध संघ तीर्थ कह जाता है, उस तीर्थ की स्थापना होने के बाद जो जीव मोक्ष में जाये, उसे तीर्थ सिद्ध कहा जाता हैं । (४) अतीर्थ सिद्ध - पूर्व (पहले) कहे अनुसार तीर्थ की स्थापना होने से पहले मोक्ष में जाये वह । (५) गृहस्थलिंग सिद्ध - गृहस्थ के वेश में ही मोक्ष में जाये वह । (६) अन्यलिंग सिद्ध - अन्य दर्शनीओं के साधुवेश में अर्थात् तापस परिव्राजक आदि वेष मे रहने पर भी मोक्ष में जाये वह अन्य लिंग सिद्ध । (७) स्वलिंग सिद्ध - श्री जिनेश्वर भगवंतने जो साधुवेश है उसे स्वलिंग कहा जाता है, ऐसे साधु वेष में मोक्ष में जाये वह स्वलिंग सिद्ध । (८) स्त्रीलिंग (78) सिद्ध - स्त्री मोक्ष में जाये वह (९) पुरुषलिंग सिद्ध - पुरुष मोक्ष में जाये वह । (१०) नपुंसकलिंग सिद्ध (79) - कृत्रिम नपुंसक मोक्ष में जाये वह । यहाँ जन्म नपुंसक को चारित्र की प्राप्ति न होने से मोक्ष भी नहीं होता हैं । (११) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध - संध्या के बदलते हुए क्षणिक रंग आदि निमित्त से वैराग्य पाकर मोक्ष में जाये वह । (१२) स्वयंबुद्ध सिद्ध - संध्या रंग आदि निमित्त बिना तथा गुरु आदिक के उपदेश बिना (जाति स्मरणादिक से भी) अपने आप वैराग्य पाकर मोक्ष में जाये वह । (१३) बुद्धबोधित सिद्ध - बुद्ध - गुरु के, बोधित-उपदेश से बोध (वैराग्य) पाकर मोक्ष में जाये वह । (१४) एकसिद्ध
एक समय मैं १ मोक्ष में जाये वह । (१५) अनेकसिद्ध - एक समय में अनेक मोक्ष में जाये वह । यहाँ जघन्य से १
समय में १ जीव मोक्ष में जाये और उत्कृष्ट से १ समय में १०८ जीव मोक्ष में जाते हैं ।
इस प्रकार संक्षिप्त में जीवादि नवतत्त्व का वर्णन समाप्त होता है ।
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77. जिण अजिण तित्थऽतित्था, गिहि अन्न सलिंग थी नर नपुंसा पत्तेय सयंबुद्धा, बुद्धबोहिय इक्कणिक्का य ।। ५५ ।।
78. स्तन आदि लिंगयुक्त वह लिंगस्त्री पुरुष के संग की अभिलाषावाली हो वह वेदस्त्री, वहाँ वेदस्त्री को मोक्ष न हो, उसी प्रकार दाढी
मूछ आदि लिंगवाला - लिंगपुरूष और स्त्रीसंग की इच्छावाला वेदपुरुष है ! उसी तरह से स्त्री के ओर पुरुष के चिह्न की विषमतावाला लिंग नपुंसक और स्त्री तथा पुरुष उभय की इच्छावाला वेद नपुंसक है । वहाँ वेद पुरुष और वेद नपुंसक को मोक्ष नहीं है और लिंग पुरुष तथा लिंग नपुंसक को मोक्ष है । 79. कृत्रिम नपुंसक के ६ भेद इस प्रकार से (१) वर्धितक - इन्द्रिय के छेदवाले हीजडे इत्यादि (२) चिप्पित - जन्म के समय ही मर्दन से गलाये गये वृषणवाले, (३) मंत्रोपहत - मंत्रप्रयोग से पुरुषत्व का नाश हुआ हो ऐसे, (४) औषधोपहत औषधिप्रयोग से नष्ट हुए पुरुषत्ववाले, (५) ऋषिशप्त ऋषि के शाप से नष्ट हुए पुरुषत्ववाले और (६) देवशप्त - देव के शाप से नष्ट हुए पुरुषत्ववाले । इस प्रकार के नपुंसक वेद की मंदतावाले होने से चारित्र आराधन करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं ।
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