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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट १, जैनदर्शन का विशेषार्थ
४३५/१०५८ सिद्ध के शेष भेद का73) अल्प बहुत्व :
१. जिन सिद्ध अल्प और अजिन सिद्ध उससे असंख्यगुने । २. अतीर्थ सिद्ध अल्प और तीर्थ सिद्ध उससे असंख्यगुने। ३. गृहस्थ लिंग सिद्ध अल्प, उससे अन्य लिंग सिद्ध (अ) संख्यात गुने और उससे स्वलिंग सिद्ध (अ) संख्यातगुने। ४. स्वयं बुद्ध सिद्ध अल्प इस से प्रत्येक बुद्ध सिद्ध संख्यात गुने इससे बुद्ध बोधित सिद्ध संख्यातगुने । ५. अनेक सिद्ध अल्प और एक सिद्ध उससे (अ) संख्यातगुने । 1 नवतत्त्व को जानने का प्रयोजन :
जीवादि नव पदार्थो को जो जाने उसे सम्यक्त्व प्राप्त होता हैं, बोध के बिना भी भाव से श्रद्धा रखनेवाले को भी सम्यक्त्व होता हैं ।(74)
जीव-अजीव आदि नव तत्त्वो का स्वरूप ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम द्वारा समज में आता हैं और वह समजनेवाले आत्मा को सत्यासत्य का विवेक होता है, धर्म-अधर्म, हित-अहित (नवतत्त्व का ज्ञाता) जानता है, इसलिए उसे सर्वज्ञ भाषित वचन ही सत्य लगते है और ऐसा होने से निश्चय सम्यक्त्व (यथार्थ वस्तुतत्त्व की श्रद्धा) प्रकट होती हैं, परन्तु यदि ज्ञानावरणीय का ऐसा तीव्र क्षयोपशम न हो और जीव अजीव आदि तत्त्वो का ज्ञान न हो तो भी "जं जिणेहिं पन्नतं तमेव सच्चं" - श्री जिनेश्वरने जो कहा है वही सत्य - ऐसे अति दृढ संस्कारवाले जीव को भी (नवतत्त्व का ज्ञान न होने पर भी) सम्यक्त्व अवश्य होता हैं ।
सम्यक्त्व हैं या नहि उसका सर्वथा निश्चय प्राय: असर्वज्ञ जीव नहीं जान सकते, परन्तु सम्यक्त्व के जो ६७ लक्षण(75) कहे है, उस लक्षणो के अनुसार से अनुमान द्वारा जीव स्थूल दृष्टि से (अर्थात् व्यवहार मात्र से) अपने आत्मा में तदुपरांत अन्य जीव में व्यवहार सम्यक्त्व का सद्भाव या अभाव अनुमान से सोच सके अथवा जान सके । 1 सम्यक्त्व मिलने से होनेवाला लाभ :
अंतोमुत्तमित्तंपि फासियं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं । तेसिं अवड्ढपुग्गल - परियट्टो चेव संसारो ।।५३।।
- जो जीवो ने अन्तमुहूर्त मात्र ही सम्यक्त्व को स्पर्श किया हो, उन जीवो का संसार मात्र अर्ध पुद्गल परावर्त्त जितना ही बाकी रहता हैं ।
विशेषार्थ : ९ समय का जघन्य अन्तमुहूर्त तथा दो घडी में १ समय न्यून काल वह उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त और १०-११ इत्यादि समयो से यावत् उत्कृष्ट अन्त मु. से अभ्यन्तर के मध्य के सर्व काल भेद (उतने भेदवाले - असंख्यात) मध्यम अन्तर्मुहूर्त हैं, यहाँ मध्यम अन्तर्मुहूर्त असंख्य समय का ग्रहण करना । ऐसे (मध्यम) अन्त मुं० मात्र जितने काल भी सम्यक्त्व का लाभ हुआ हो तो अनेक महा आशातना आदिक पाप के कारण से कथंचित् ० ।। (अर्ध) पुद्गल परावर्त जितना अनन्तकाल भटके तो भी पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करके चारित्र लेकर जीव मोक्ष में जा सकता हैं । (पुद्गल परावर्त का स्वरूप आगे ५४वीं गाथा के अर्थ में कहा जायेगा ।) यहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करने से जो ग्रन्थि भेद होता है, वह ग्रन्थि भेद एक बार होने के बाद पुनः ऐसी ग्रन्थि (निबिड राग द्वेष रूप ग्रन्थि) जीव को प्राप्त नहीं होती हैं अर्थात् ऐसी तीव्र रागद्वेष रुप परिणाम आत्मा को पुनः प्राप्त नहीं होता हैं । इसलिए उस ग्रंथिभेद के प्रभाव से अर्ध अर्ध पुद्गल परावर्त्त से भी अवश्य मोक्ष होता हैं । पुनः यदि ऐसी अनेक महा आशातनायें आदिक न करे तो कोई जीव उसी भव में अथवा तीसरे, सांतवे और आठवें भव में भी मोक्ष प्राप्त करता हैं अथवा आशातनाओं की परंपरा का अनुसरण करके उससे 73.सिद्ध के अल्पबहुत्व का विषय बहोत विस्तारवाला हैं और अनेक प्रकार का हैं । वह विस्तृत रूप में शास्त्रान्तर से ज्ञातव्य हैं।
74. जीवाइनवपयत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं, भावेण सद्दहंतो, अयाणमाणेऽवि सम्मत्तं ।।६२ ।। (नव.प्र.) 75. सम्यक्त्व के ६७ लक्षण - सम्यक्त्व सप्तति आदि ग्रंथो से जानना ।।
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