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(१) सत्पद प्ररूपणा :
संतं
षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
सुद्धपयत्ता, विज्जंतं कुसुमव्व न असंतं । मुक्खत्ति पयं तस्स उ, परुवणा मग्गणाईहिं ।। ४४ ।। गाथार्थ : “मोक्ष” सत् है - शुद्ध पद होने से विद्यमान हैं । आकाश के फूल की तरह अविद्यमान नहीं है- “मोक्ष” इस प्रकार का पद है और मार्गणा द्वारा उसकी विचारणा होती हैं ।
न्यायशास्त्र में किसी भी वस्तु सिद्ध कर देने के लिए पाँच अवयववाले वाक्य का प्रयोग होता है, वह इस प्रकार से हैप्रतिज्ञा - मोक्ष, सत् है । हेतु शुद्ध = अकेले पद के अर्थरूप होने से विद्यमान है ।
उदाहरण - जो जो एक पद हो, उसके अर्थ होते ही है । जैसे कि, घोडा, गाय, इत्यादि, एक-एक पद हैं, इसलिए उसके पदार्थ भी है । उपरांत जो जो शुद्ध - अकेले पद नहीं है, परन्तु जुडे हुए पद है। उसके अर्थ हो या न भी हो, राजपुत्र यह अशुद्ध पद हैं, फिर भी उसका अर्थ है और आकाश का फूल, उसका अर्थ नहीं है । ऐसा यह असत् नही हैं, ऐसी विरुद्ध घटनावाला उदाहरण गाथा में दिया हैं । उपनय “मोक्ष” यह शुद्ध पद है । इसलिए उसका अर्थ है । निगमन उस मोक्ष पद के अर्थरूप जो पदार्थ वही मोक्ष । यहाँ उपनय और निगमन एक साथ संक्षिप्त में कहे हैं। इस तरह से मोक्ष का अस्तित्व सिद्ध हो जाने के बाद मार्गणा इत्यादि से उसकी विचारणा करने से उसके स्वरूप की विस्तार से साबितीयाँ (प्रमाण) मिलती है और द्रव्य प्रमाण इत्यादि भी अस्तित्व सिद्ध हो तब ही सोचे जा सकते हैं ।
प्रश्न : यहाँ डित्थ, कपित्थ इत्यादि कल्पित एक एक पदवाले भी पदार्थ नहीं है, वेसे एक पदवाला मोक्ष भी नहीं है, ऐसा मानने में क्या विरुद्ध हैं ?
उत्तर : जिस शब्द का अर्थ और व्युत्पत्ति हो सके उसे पद कहा जाता है । परन्तु अर्थ शून्य शब्द को पद नहीं कहा जाता है और सिद्ध अथवा मोक्ष ये शब्द तो अर्थ और व्युत्पत्ति युक्त है, इसलिए पद कहे जाते हैं, परन्तु डित्थ, कपित्थ इत्यादि शब्द अर्थ शून्य है । इसलिए पद नहीं कहे जाते है । इसलिए वे पदोवाली वस्तु भी नहीं है । परन्तु सिद्ध, मोक्ष ये तो पद है और इसलिए उसकी वस्तु भी हैं ।
1 मूल मार्गणायें (61) और उसके ६२ भेदो का संक्षिप्त अर्थ :
मार्गणा अर्थात् शोधन, जैन शास्त्र में किसी भी पदार्थ का विस्तार से विचार समझने के लिए अर्थात् उस पदार्थ का गहन तत्त्व - रहस्य स्वरूप खोजने के लिए इन १४ स्थानो पर घटना की जाती है । वह भी एक प्रकार के अनुयोग ही है ।
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१. गतिमार्गणा ४ भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक इन चार प्रकार में से किसी भी देवत्व की परिस्थिति वह (१) देवगति, मनुष्यत्व प्राप्त होना वह (२) मनुष्य गति, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पशु, पक्षी, मत्स्य आदिक योनियों में उत्पन्न होना वह (३) तिर्यंच गति और रत्नप्रभादि सात पृथ्वीओं में नारकी रूप से उत्पन्न होना वह (४) नरकगति ।
२. जाति मार्गणा ५ - स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय इन पाँच इन्द्रियों मे से क्रमशः १-२-३-४-५ इन्द्रियवाले जीव, वह एकेन्द्रिय जाति, द्विन्द्रिय जाति इत्यादि यावत् - पंचेन्द्रिय जाति कही जाती हैं ।
३. काय मार्गणा ६ - पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पतिरूप काया शरीर और चल फिर सके ऐसी काया शरीर धारण करे वे जीव अनुक्रम से पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय
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४. योग मार्गणा ३ - विचार समय प्रवर्तित होता आत्मा का स्फुरण वह मनोयोग । वचनोच्चार के समय प्रवर्तित होता आत्मा का स्फूरण वह वचनयोग, काया की स्थूल सूक्ष्म चेष्टा से प्रवर्तित होता आत्मा का स्फुरण वह काययोग । 61. गई इंदिए अ काए, जोए वेए कसाय नाणे अ, संजम दंसण लेसा, भव सम्मे सन्नि आहारे ।। ४५ ।। (नव.प्र.)
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