________________
४२२/१०४५
षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ इत्यादि अल्प करना वह भाव ऊनौदरिका । इस तप में पुरुष का आहार ३२ कवल और स्त्री का आहार २८ कवल अनुसार गिनकर यथायोग्य पुरुष की ऊनोदरिका ९-१२-१६-२४ और ३१ कवल भक्षण से पाँच प्रकार की है और स्त्री की ऊनौदरिका ४-८-१२-२०-२७ कवल भक्षण द्वारा पाँच प्रकार की है । (३) वृत्तिसंक्षेप : द्रव्यादिक चार भेद से मनोवृत्ति का संक्षेप अर्थात् द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से भिक्षा इत्यादि के अभिग्रह धारण करना वह । अर्थात् द्रव्य से - अमुक वस्तु का, क्षेत्र से - अमुक स्थान का, काल से - अमुक काल में और भाव से रागद्वेष रहित होकर जो (मनोवृत्तियाँ पीछे हटानेरूप) वृत्ति संक्षेप, वह, द्रव्यादिक से ४ प्रकार का कहा जाता है । (४) रसत्याग तप : रस अर्थात् दूध - दहीं - घी - तेल - गुड और तली हुई वस्तु, ये ६ लघुविगइ तथा मदिरा - मांस - मक्खन और मधु (शहद) ये चार महाविगइ, वहाँ महाविगय का सर्वथा त्याग और लघुविगय का द्रव्यादि चार भेद से यथायोग्य त्याग करना, उसे रसत्याग कहा जाता हैं । (५) कायक्लेश तप : वीरासन आदि आसनो से (बैठने की विधियों से) बैठना, कायोत्सर्ग करना और केश का लोच करना इत्यादि कायक्लेश तप हैं । (६) संलीनता तप : संलीनता अर्थात संवरण करना, संकुचाना, वहाँ अशुभ मार्ग में प्रवर्तित होती इन्द्रियो का संवरन करना, अर्थात् पीछे हटाना वह इन्द्रिय संलीनता, कषायो को रोकना वह कषाय संलीनता, अशुभ योग से निवर्तन करना वह योग संलीनता और स्त्री, पशु, नपुंसक के संसर्गवाले स्थान का त्याग करके अच्छे स्थान में रहना उसे विविक्तचर्या संलीनता कहा जाता हैं । ऐसे ४ (चार) प्रकार का संलीनता तप जाने ।
इस प्रकार छः प्रकार का बाह्य तप हैं, कि जो तप लोक भी देखकर उसे तपस्वी कहते हैं और बाह्य दिखावेवाला है। तथा शरीर को तपाता है, इसलिए ये छः प्रकार का तप बाह्य तप कहा जाता हैं । ___छः अभ्यंतर तप(56) : प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग ये छ: प्रकार का अभ्यंतर तप हैं ।
विशेषार्थ : अब ६ प्रकार का अभ्यन्तर तप कहते हैं । जो तप लोग बाह्यदृष्टि से जान नहीं सकते हैं, जिस तप से लोग तप करनेवाले को तपस्वी नहीं कहते है, जिससे बाह्य शरीर तपता नहीं है, परन्तु अभ्यन्तर आत्मा को और मन को तपाता है और विशेषत: जो तप अंतरंग प्रवृत्तिवाला होता है, ऐसे प्रायश्चित्त आदिक को अभ्यन्तर तप कहा हैं । उसका स्वरूप इस प्रकार से है -
1 १० प्रकार का प्रायश्चित तप : हो गये हुए अपराध की शुद्धि करना वह प्रायश्चित्त तप के १० भेद इस प्रकार से है - (१) आलोचना प्रायश्चित्त - किये हुए पाप का गुरु आदि समक्ष प्रकाश करना वह । (२) प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त - हो गया हुआ पाप पुनः नहीं करने के लिए मिच्छामि दुक्कडं (मेरा पाप मिथ्या हो ऐसा) कह देना वह । (३) मिश्र प्रायश्चित्त - किया हुआ पाप गुरु समक्ष कहना और मिथ्या दुष्कृत भी देना वह । (४) विवेक प्रायश्चित्त - अकल्पनीय अन्नपान विधिपूर्वक त्याग करना वह । (५) कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त - काया का व्यापार बन्ध रखकर ध्यान करना वह। (६) तप - प्रायश्चित्त - किये हए पाप के दंडरूप नीवी प्रमख तप करना वह । (७) छेद प्रायश्चित्त - महाव्रत का घात होने से अमुक प्रमाण का दीक्षा काल छेदना - कम करना वह । (८) मूल प्रायश्चित्त - महा अपराध होने से मूल से पुनः चारित्र देना वह। (९) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त - किये हुए अपराध का प्रायश्चित्त न करे तब तक महाव्रत का उच्चरण न करना वह । (१०) पारांञ्चित प्रायश्चित्त - साध्वी का शील भंग करने से अथवा राजा की रानी इत्यादि के साथ अनाचार सेवन हो जाने से अथवा ऐसे दूसरे शासन के महा उपघातक पाप के दंड के लिए १२ वर्ष गच्छ से बाहर 56.पायच्छित्तं विणओ, वैयावच्चं तहेव सज्झाओ, झाणं उस्सग्गोऽवि अ, अभिंतरओ तवो होइ ।।३६।। (नव.प्र.)
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org