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षड्दर्शन समुझव भाग-२, परिशिष्ट १, जैनदर्शन का विशेषार्थ
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शुक्लध्यान पूर्वप्रयोग से होता है, जैसे दंड के द्वारा चक्र घुमाकर दंड निकाल लेने के बाद भी चक्र फिरता ही रहता है, वैसे यह ध्यान भी जानना ।
शुक्ल ध्यान के चार भेद में पहले दो शुक्लध्यान छद्यस्थ को और अंतिम दो ध्यान केवलि भगवंत को होता हैं। तथा पहले तीन ध्यान सयोगी को और अंतिम १ ध्यान अयोगी को होता है । तथा इन चारों ध्यान का प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण का होता हैं, छाद्मस्थिक ध्यान योग की एकाग्रतारूप हैं और कैवलिक ध्यान योगनिरोधरूप हैं।
उपवास, एकासन, आयंबिल, ऊनोदरी, विगयत्याग, कायक्लेश इत्यादि अनेक प्रकार की बाह्य तपश्चर्या को "यह तो बाह्य तप हैं, ऐसी तपश्चयां तो जानवर भी करते हैं।" इत्यादि वचन से बाह्य तपश्चर्यारूप निर्जरा धर्म का अनादर न करना। क्योंकि बाह्य अनेक महा लब्धियों की उत्पत्ति भी बाह्य तपश्चर्या के बिना केवल अभ्यन्तर तप से होती नहीं है। अभ्यंतर तप करने में शूर ऐसे छद्यस्थ अरिहंत भगवंत भी चारित्र लेने के बाद छद्मस्थ अवस्था पर्यन्त घोर तपश्चर्यायें करते है। तब ही निर्जरा धर्म प्रकट होने से सर्वज्ञत्व प्राप्त होता है। इसलिए बाह्य तपश्चर्या आत्मा का सच्चा कसोटी धर्म है इतना ही नहि परन्तु बाह्य तपश्चर्या यही अभ्यन्तर तपश्चर्या का लिंग (स्पष्ट निशानी) हैं । आत्मा यदी आत्म धर्म सन्मुख हुआ हो तो बाह्य तपश्चर्या अवश्य प्राप्त होती है । उपरांत बाह्य तप और अभ्यन्तर तप दोनों परस्परोत्पादक हैं, इसलिए बाह्य तप के परिणाम से अभ्यन्तर तप प्रकट होता है और अभ्यन्तर तप से बाह्यतप तो अवश्य प्रकट होगा ही, इसलिए उपवास आदि बाह्यतप भी मांगलिक हैं, सर्वसिद्धिदायक हैं और परंपरा से मुक्तिदायक भी हैं, ऐसा जानकर, हे जिज्ञासु ! आप परम पवित्र ऐसे बाह्य तप का भी अति हर्ष से आदर करे और बाह्य तप का अवर्णवाद न बोले । 1 २ प्रकार से कायोत्सर्ग काय अर्थात् काया इत्यादि के व्यापार का उत्सर्ग अर्थात् त्याग, वह कायोत्सर्ग अथवा (सामान्य शब्द से) उत्सर्ग कहा जाता है । उस उत्सर्ग के द्रव्योत्सर्ग और भावोत्सर्ग ये दो भेद हैं । वहाँ द्रव्योत्सर्ग ४ प्रकार का और भावोत्सर्ग ३ प्रकार का हैं, वह इस प्रकार से है -
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४ द्रव्योत्सर्ग गण-गच्छ का त्याग करके जिनकल्प आदि कल्प अंगीकार करना, वह गणोत्सर्ग (पादपोपगम आदि भेदवाले) अनशनादिक व्रत लेकर काया का त्याग करना, वह कायोत्सर्ग कल्प विशेष की सामाचारी अनुसार उपधि का त्याग, वह उपाधि उत्सर्ग और अधिक अथवा अशुद्ध आहार का त्याग करना, वह अशुद्ध भक्तपानोत्सर्ग । ३ भावोत्सर्ग कषाय का त्याग, वह कषायोत्सर्ग । भव के कारणरूप मिथ्यात्वादि बंध हेतु का त्याग करना, वह भवोत्सर्ग, ज्ञानावरण आदि कर्म का त्याग वह कर्मोत्सर्ग ।
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इस प्रकार से ६ प्रकार का अभ्यन्तर तप परम निर्जरा का कारण हैं, उसका स्वरूप कहा, उसके साथ निर्जरातत्त्व भी समाप्त हुआ ।
८. बन्ध तत्त्व : दूध और पानी की तरह आत्मा और कर्म का एकरूप होना उसे बंध कहा जाता हैं । उसके ४ प्रकार हैं ( ( 57 ) (१) प्रकृतिबंध, (२) स्थितिबंध, (३) अनुभाग (रस) बंध और (४) प्रदेश बंध इन चारों बंध का स्वरूप नीचे बतायें अनुसार से हैं । (यहाँ मोदक के दृष्टान्त से प्रकृतिबन्ध आदि चार प्रकार के बंध तत्त्व का स्वरूप कहा जाता है, वह इस अनुसार से है -)
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(१) प्रकृतिबन्ध : आत्मा के साथ बंधी हुई कार्मण वगणा वह कर्म, कार्मण वर्गणा और आत्मा का संबंध वह बंध। किसी भी प्रकार का स्वभाव निश्चित होने से ही बंध होता है । इसलिए वह प्रकृतिबंध । जैसे मोदक में सूँठ का मोदक वायु 57. बंधो चढविगण अपयइटिङ्ग अनुभाग
पएसभेएहिं नायव्वो । ३४ ।। (नव.प्र.)
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