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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
४१५/१०३८ (२) भाषा समिति : सम्यक् प्रकार से निरवद्य (निर्दोष) भाषा बोलना वह भाषा समिति । यहाँ सामायिक पौषधवाले श्रावक और सर्वविरतिवंत मुनि मुख पे मुँहपत्ति रखकर निरवद्य वचन बोले तो भाषा समिति जाने और यदि मुँहपत्ति के बिना निरवद्य वचन बोले तो भी भाषा असमिति जाने । (३) एषणा समिति : सिद्धान्त में कही हुई विधि के अनुसार ४२ दोषरहित आहार ग्रहण करना, वह एषणा समिति। मुख्यत: मुनि महाराज को और गौणता से यथायोग्य पौषधादि व्रतधारी श्रावक को होती हैं । (४) आदान समिति : वस्त्र, पात्र आदि उपकरणो को देखकर, प्रमार्जन करके लेना, रखना वह आदान समिति । उसका दूसरा नाम आदानभंडमत्तनिक्खेवणा समिति भी हैं । (५) उत्सर्ग समिति : बडी नीति, लघुनीति - अशुद्ध आहार, बचा हुआ आहार - निरुपयोगी हुए उपकरण इत्यादि का विधिपूर्वक त्याग करना (परठना) वह उत्सर्ग समिति । इसका दूसरा नाम पारिष्ठापनिका समिति भी हैं ।
तीन गुप्ति : (१) मनोगुप्ति : मन को सावद्य मार्ग के विचार में से रोकना (और सम्यक् विचार में प्रवर्तित करना।) वह मनोगुप्ति ३ प्रकार से हैं । वहाँ मन को आर्त्तध्यान-रौद्रध्यानरूपी दुर्ध्यान में से रोकना वह १. अकुशल निवृत्ति । धर्मध्यान, शुक्लध्यान में प्रवर्तित करना वह २. कुशल प्रवृत्ति और केवलि भगवंत को सर्वथा मनोयोग का निरोध - अभाव हो उस वक्त ३. योगनिरोध रूप मनोगुप्ति होती हैं । (२) वचनगुप्ति : सावध वचन न बोलना (और निरवद्य वचन बोलना ।) वह वचनगुप्ति । उसके दो भेद हैं - शिर:कंपन इत्यादि का भी त्याग करके मौन रखे, वह मौनावलम्बिनी और वाचनादि के समय मुख पे मुँहपत्ति रखकर बोलना वह वानियमिनी वचनगुप्ति जाने ।
प्रश्न : भाषा समिति और वचनगुप्ति में क्या अंतर हैं ?
उत्तर : वचनगुप्ति सर्वथा वचननिरोध रूप और निरवद्य वचन बोलनेरूप दो प्रकार की हैं और भाषासमिति तो निरवद्य वचन बोलनेरूप एक ही प्रकार की हैं । इस प्रकार नवतत्त्व की अवचूरि में कहा हैं ।
(३) कायगुप्ति : काया को सावध मार्ग में से रोककर निरवद्य क्रिया में जोडना वह कायगुप्ति दो प्रकार की है । वहाँ उपसर्गादि प्रसंग में भी काया को चलायमान न करना तथा केवलि भगवंतने किये हुए काययोग का निरोध वह
चेष्टानिवृत्ति कायगुप्ति और सिद्धान्त में कही हुई विधि के अनुसार गमन-आगमन आदि करना, वह यथासूत्र चेष्टा नियमिनी कायगुप्ति हैं ।
उस प्रकार पाँच समिति वह कुशल में (सन्मार्ग में) प्रवृत्तिरूप हैं और तीन गुप्ति वह कुशल में प्रवृत्ति और अकुशल से निवृत्तिरूप हैं । वे आठ "प्रवचन माता" मानी जाती है । क्योंकि उस आठ से संवर धर्मरूपी पुत्र उत्पन्न होता है और उस धर्मपुत्र का पालन पोषण होता है । ये आठ प्रवचन माता व्रतधारी श्रावक को सामायिक पोसह में और मुनि को हमेशां होती हैं ।
२२ परिषह : परि - समस्त प्रकार से (कष्ट को) सह-सहन करना परन्तु धर्ममार्ग का त्याग न करना उसे परिषह कहा जाता हैं । वे २२ परिषह में दर्शन (सम्यक्त्व) परिषह और प्रज्ञा परिषह ये दो परिषह धर्म का त्याग नहीं करने के लिए है और २० परिषह कर्म की निर्जरा करने के लिए हैं, वे २२ परिषह क्रमशः इस प्रकार हैं - १. (40)क्षुधा परिषह : क्षुधा वेदनीय सर्व अशाता वेदनीय से अधिक हैं, इसलिए ऐसी क्षुधा को भी सहन करना । परन्तु अशुद्ध आहार ग्रहण न करना, उपरांत आर्त्तध्यान न करना, उसे क्षुधा परिषह का विजय किया कहा जाता हैं । २. पिपासा परिषहः पिपासा अर्थात् तृषा को भी सम्यक् प्रकार से सहन करना परन्तु सचित जल अथवा मिश्र जल न पीना, संपूर्ण ३ खौलवाला उष्ण जल आदि और वह भी सिद्धान्त में कही हुई विधि अनुसार निर्दोष प्राप्त हुआ हो तो ही लेना वह तृषा40.खुहा पिवासा सी उण्हं, दंसाचेलारइथिओ । चरिया निसीहीया सीज्जा, अक्कोस वह जायणा ।।२७।।
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