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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट- १, जैनदर्शन का विशेषार्थ १९. अनाभोग अर्थात् उपयोग रहितपन द्वारा होती क्रिया वह अनाभोगिकी क्रिया दो प्रकार की हैं । वहाँ उपयोग रहित और प्रमार्जनादि किये बिना वस्त्रपात्र इत्यादि लेना रखना अनायुक्तादान अनाभोगिकी और उपयोग रहित प्रमार्जनादि करके लेने-रखने से अनायुक्त प्रमार्जना अनाभोगिकी क्रिया होती हैं (यह क्रिया ज्ञानावरणीय उदय प्रत्ययिक सकषायी जीव को हैं, इसलिए १० वें गुणस्थानक तक हैं ।
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२०. अपने अथवा पर के हित की आकांक्षा- अपेक्षा रहित जो ईहलोक और परलोक विरुद्ध चोरी परदारागमन ( = परस्त्रीगमन) आदि आचरण वह अनवकांक्ष प्रत्ययिकी क्रिया स्व और पर भेद से दो प्रकार की है । (यह क्रिया बादर कषायोदय प्रत्ययिक होने से नौंवें गुणस्थानक तक हैं । यहाँ अन= रहित, अवकांक्षः = हित की अपेक्षा, प्रत्ययिका = निमित्तवाली, यह शब्दार्थ हैं ।)
२१. मन-वचन-काया के शुभाशुभ योग रूप क्रिया वह प्रायोगिकी क्रिया (यह क्रिया शुभाशुभ सावद्ययोगी को होने से पाँचवें गुणस्थानक तक हैं ।)
२२. यथायोग्य आठों कर्म की समुदाय रूप में ग्रहण क्रिया अथवा ऐसा इन्द्रियों का व्यापार अथवा लोकसमुदाय से साथ मिलकर की हुई क्रिया अथवा संयमी की असंयम प्रवृत्ति वह सामुदानिकी क्रिया अथवा समादान क्रिया अथवा सामुदायिकी क्रिया कहा जाता हैं । ( वह १० वें अथवा पूर्वे गुणस्थानक तक हैं ।) यहाँ समादान अर्थात् इन्द्रिय और सर्व (कर्म) का संग्रह, ऐसे दो मुख्य अर्थ हैं ।
२३. स्वयं प्रेम करना अथवा दूसरे को प्रेम आये ऐसे वचन बोलना, इत्यादि व्यापार वह प्रेमिकी क्रिया । (यह क्रिया माया तथा लोभ के उदयरूप होने से दसवें गुणस्थानक तक हैं ।)
२४. स्वयं द्वेष करना अथवा अन्य को द्वेष आये ऐसा करना वह द्वैषिकी क्रिया । (क्रोध और मान के उदयरूप होने से नौवें गुणस्थानक तक हैं ।)
२५. इर्या अर्थात् (गमन - आगमन आदि केवल) योग, वही एक पथ अर्थात् (कर्म आने का मार्ग, वह इर्यापथ और तत्संबंधी जो क्रिया वह इर्यापथिकी क्रिया अर्थात् कर्मबंध के मिथ्यात्व अव्रत- कषाय और योग इन चार हेतु में से केवल योगरूप एक ही हेतु द्वारा बँधा जाता कर्म इर्यापथिकी क्रिया रूप मानी जाती हैं । ( वह अकषायी जीव को होने से १११२-१३ गुणस्थानक पर होती 1) इस क्रिया से एक सातावेदनीय कर्म २ समय की स्थितिवाला बंधता हैं, वह पहले समय बाँधे, दूसरे समय उदय में आये और तीसरे समय निर्जरा पाते है । यह कर्म अति श्रेष्ठ वर्ण, गंध, रस, स्पर्शवाला और अति रुक्ष होता हैं ( (37)
संवर का स्वरूप और उसके ५७ प्रकार : आत्मा में आते हुए कर्मों को रोकना उसे संवर कहा जाता हैं । संवर के ५७ प्रकार हैं । (38) वह नीचे बताये अनुसार हैं । (१) पाँच समिति (२) तीन गुप्ति । सम्यक् प्रकार के उपयोगपूर्वक जो प्रवृत्ति वह समिति और सम्यक् प्रकार से उपयोग पूर्वक निवृत्ति तथा प्रवृत्ति वह गुप्ति कही जाती हैं । वहाँ समिति के पाँच भेद तथा गुप्ति के तीन भेद इस अनुसार से हैं ।
पाँच समिति(39) : (१) इर्या समिति : इर्या अर्थात् मार्ग, उसमें उपयोगपूर्वक चलना, वह इर्या समिति । यहाँ मार्ग में युग मात्र (३ ।। हाथ ) भूमि को दृष्टि से देखते हुए और सजीव भाग का त्याग करते हुए चलना वह इर्या समिति हैं । 37. आणवणि विआरणिया, अणभोगा अणवकंखपच्चइया । अन्ना पओग समुदाण पिज्झ दोसेरियावहिया ।। २४ ।। 38. समिई गुत्ती परिसह, जइधम्मो भावना चरित्ताणि । पण ति दुवीस दस बार पंच भेएहिं सगवन्ना ।। २५ ।। 39. इरिया भासेसणादाणे, उच्चारे समिइसु अ । मणगुत्तिवयगुत्ती, कायगुत्ती तहेव य ।। २६ ।। ( नव.प्र.)
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