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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
भी अंतर्गत होता ही हैं । (६) संयम : स सम्यक् प्रकार के यम = ५ महाव्रत अथवा ५ अणुव्रत उसे संयम धर्म कहा जाता हैं, यहाँ मुनि का संयम धर्म ५ महाव्रत, ५ इन्द्रिय निग्रह, ४ कषाय का जय और (मन-वचन-काया के अशुभ व्यापार रूप) ३ दंड की निवृत्ति ऐसे १७ प्रकार का हैं । (७) सत्य : सत्य, हितकारी, प्रमाणानुसार, प्रिय, धर्म की प्रेरणा देनेवाले वाक्य बोलना । (८) शौचः पवित्रता, मन, वचन, काया और आत्मा की पवित्रता, मुनि बाह्य उपाधि रहित होने से मन से पवित्र होते हैं, वचन से समिति गुप्ति का पालन करने के लिए सत्यवचन बोलनेवाले होने से पवित्र होते है । तपस्वि होने से उनके शारीरिक मैल जल जाने से उनकी काया पवित्र होती हैं । अथवा मल-मूत्रादि अशुचियाँ की यथायोग्य शुद्धि करनेवाले होते हैं और रागद्वेष के त्याग का उनका लक्ष्य होने से आत्मा को भी पवित्र करते होते हैं, इस प्रकार द्रव्य से और भाव से पवित्रता, वह शौच । (९) आकिञ्चन्य : ( किञ्चन कुछ भी, अ-नहि अर्थात्) कुछ भी परिग्रह न रखना वह अकिंचन धर्म, उसी तरह ममत्व भी न रखना वह अकिंचन धर्म हैं । (यहाँ तद्धित के नियम से "अ" का "आ" हुआ हैं ।) (१०) ब्रह्मचर्य : मन वचन काया से वैक्रियशरीरी (देवी) के साथ तथा औदारिक शरीरी (= मानुषी और तिर्यंचणी) के साथ मैथुन का (करना - कराना और अनुमोदना करना ये ३ करण से) त्याग, वह (३ x २ x ३) = १८ प्रकार का ब्रह्मचर्य जानना । अथवा गुरुकुलवास अर्थात् गुरु की आज्ञा में और साधु समुदाय में रहकर, उसके नियमो का अनुसरण करके ज्ञान और आचार शीखे, उसे भी ब्रह्मचर्य कहा जाता हैं । यह १० प्रकार का यतिधर्म कहा ।
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• बारह भावना ( 43 ) : (१) अनित्य भावना : “लक्ष्मी, कुटुम्ब, यौवन, शरीर, दृश्य पदार्थ ये सब बिजली के समान चपल - विनाशवंत है, आज हैं और कल नहीं हैं ।" इत्यादि प्रकार से वस्तुओं की अस्थिरता का चितवन करना वह । (२) अशरण - भावना : “दुःख और मृत्यु के समय कोई किसी का शरण नहीं है" इत्यादि चिंतन करना वह । (३) संसार-भावना : "चार गतिरूप इस संसार में निरंतर भ्रमण करना ही पड़ता है । जो अनेक दुःखो से भरा हुआ हैं, संसार में माता स्त्री होती है और स्त्री माता होती हैं, पिता पुत्र होता है, पुत्र मरकर पिता होता हैं, इसलिए नाटक के दृश्य समान विलक्षण यह संसार सर्वथा त्याग करने योग्य है" इत्यादि चिंतन करना वह संसार-भावना । (४) एकत्व - भावनाः "यह जीव अकेला आया हैं, अकेला जानेवाला है और सुख-दुःखादि भी अकेला ही भुगतता हैं, कोई सहायकारी नहीं होता हैं ।” इत्यादि चिंतन करना वह । (५) अन्यत्व - भावना : "धन कुटुंब परिवार, वे सर्व अन्य हैं, परन्तु वह रूप मैं नहीं हुँ, मैं आत्मा हूँ, मैं शरीर नहीं हुँ, परन्तु वह मुझ से अन्य हैं ।" इत्यादि चिंतन करना वह । ( ६ ) अशुचित्व - भावनाः “यह शरीर रस-रुधिर-मांस-मेद - अस्थि मज्जा और शुक्र ये अशुचिमय सात धातु का बना हुआ हैं । पुरुष के शरीर में ९ द्वार - २ चक्षु, २ कान, २ नाक, १ मुख, १ गुदा, १ लिंग से हंमेशा अशुचि बहा करती हैं और स्त्री के (२ स्तन और योनि में दो द्वार) १२ द्वार से हंमेशा अशुचि बहा करती हैं । उपरांत जिसके संग से अत्तर, तेल आदि सुगंधि पदार्थ भी दुर्गंधरूप बनते हैं, मिष्ट आहार भी अशुचिरूप होता हैं, ऐसे इस शरीर की उपर से दिखाई देती सुंदर आकृति को उल्टी करके देखे, तो महा त्रास हो ऐसी अति बिभत्स होती हैं ।" इत्यादि चिंतन करना वह । (७) आश्रव भावना : कर्म को आने के ४२ मार्ग पहले कहे हैं, “उसके द्वारा कर्म निरंतर आते ही रहते हैं और आत्मा को नीचे उतारते ही जाते हैं। ऐसा ही चलता रहे, तो आत्मा का उद्धार कब होगा ?" इत्यादि चिंतन करना वह । (८) संवर-भावना : समिति, गुप्ति, परिषह, यतिधर्म, भावना और चारित्र, उन सभी के ५७ भेदो के स्वरूप का चिंतन करे और वह संवर-तत्त्व कर्मों को रोकने का अच्छा साधन हैं । वह न हो तो जीव का उद्धार ही न होता, इसलिए अमुक कर्म रोकने के लिए अमुक अमुक 43. पढममणिच्चमसरणं, संसारो एगया य अन्नत्तं । असुइत्तं आसव संवरो य तह णिज्जरा नवमी ।। ३० ।। 44 लोगसहावो बोही, दुल्लहा धम्मस्स साहगा अरिहा । एआओ भावणाओ भावेअव्वा पयत्तेणं ।। ३१ ।। ( नव.प्र.) 45. वस्तु के स्वभाव की परावृत्ति वह पर्याय । अथवा परावृत्ति पानेवाला वस्तुधर्म वह पर्याय । 46. वही की वही एक ही स्थिति रूप ।
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