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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
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बार भुगतने योग्य स्त्री आभूषण आदि उपभोग्य कहे जाते हैं तथा (१०) जिससे बल न हो और हो तो उपयोग में न आ सके वह वीर्यान्तराय कर्म, ये पाँचो पापकर्म के भेद है । (28) (११) जिससे चक्षुर्दर्शन का (चक्षुः इन्द्रिय की शक्ति का ) आच्छादन हो वह चक्षुर्दर्शनावरणीय कर्म (१२) जिससे चक्षुः के सिवा शेष ४ इन्द्रिय तथा १ मन ये पाँच की शक्ति का आच्छादन हो, वह अचक्षुर्दर्शनावरणीय, (१३) जिससे अवधिदर्शन आच्छादन हो, वह अवधिदर्शनावरणीय, (१४) जिससे केवलदर्शन आच्छादन हो, वह केवलदर्शनावरणीय, (१५) जिससे सुख से जाग्रत हो जाये ऐसी अल्पनिद्रा वह निद्रा, (१६) दुःख से जाग्रत हो जाये ऐसी अधिक निद्रा वह निद्रानिद्रा (१७) बैठे बैठे और खडे खडे निंद आये वह प्रचला, (१८) चलते-चलते निद्रा आये वह प्रचलाप्रचला और (१९) जो निद्रा में जीव दिन में चिंतन किया हुआ कार्य करे ऐसी प्रथम संघयणी को वासुदेव से अर्ध बलवाली और वर्तमान में सात आठ गुने बलवाली निद्रा वह थीणद्धि (29) (स्त्यानद्धि) निद्रा कही जाती है । ये ४ दर्शनावरण और ५ निद्रा मिलकर ९ भेद दर्शनावरणीय कर्म के हैं । (२०) जिससे नीच - कुल जाति वंश में उत्पन्न हुआ जाये वह नीचगोत्र कर्म, (२१) जिससे दुःख का अनुभव हो वह अशातावेदनीय कर्म, (२२) जिससे सर्वज्ञ भगवंतने कहे हुए मार्ग से विपरीत मार्ग की श्रद्धा हो, वह मिथ्यात्व मोहनीय कर्म । (२३-३२) जिससे स्थावर इत्यादि १० भेद की भाव की प्राप्ति हो वह स्थावर दशक ( ३३-३५) जिससे नरकगति, नरक की आनुपूर्वी और नरकआयुष्य की प्राप्ति हो, वह नरकत्रिक (३६ - ६०) जिससे २५ कषाय की प्राप्ति हो वे २५ कषायमोहनीय(30) और (६१-६२) जिससे तिर्यंचगति तथा तिर्यंच की आनुपूर्वी प्राप्त हो वह ( 31 ) तिर्यग्विक, (६३) पृथ्वीकाय आदिक एकेन्द्रियत्व की प्राप्ति वह एकेन्द्रिय जाति, (६४) शंख आदि द्वीन्द्रियत्व की प्राप्ति वह द्वीन्द्रिय जाति, (६५) जुआँ, खटमल आदि त्रीन्द्रियत्व की प्राप्ति वह त्रीन्द्रिय जाति, (६६) तीतली, बिच्छू आदिक चतुरिन्द्रियत्व की प्राप्ति वह चतुरिन्द्रिय जाति, (६७) ऊँट तथा गर्दभ समान अशुभ चाल वह अशुभ विहायोगति, (६८) प्रतिजिह्वा, रसौली, दीर्घदन्त आदि अपने अवयव द्वारा ही स्वयं दुःख पाये अथवा जल में झंझापात, पर्वत के शिखर से पात और फाँसे आदिक से आपघात करना = होना उसे उपघात कहा जाता है । इत्यादि दिलानेवाले बँधे हुए
सर्व कर्म पापतत्त्व समजे । (६९) जिससे ( शरीर में) कृष्णवर्ण और नीलवर्ण प्राप्त हो यह अशुभवर्ण नामकर्म (७०) दुरभिगंध वह अशुभगंध (७१) तीखा और कडुआ रस वह अशुभरस (७२) गुरु- कर्कश शीत तथा रुक्ष ये ४ अशुभ स्पर्श है और अशुभ वर्णादि चार पाप कर्मप्रकृतियाँ बंधने से अप्रशस्त वर्णचतुष्क उदय में आता हैं । (७३) तथा पहले संघयण के बिना ५ संघयण की प्राप्ति, वह इस प्रकार, जिसके हड्डीओं की संधियाँ ( जोड) हो पास में मर्कटबन्धवाली हो और ऊपर हड्डी का पट्टा हो, परन्तु हड्डी किल न हो, ऐसा आकार वह ऋषभनाराच (७४) केवल दो मर्कटबंध हो और पट्टा, किल न हो वह नाराच (७५) एक ओर मर्कटबंध हो और किल भी न हो वह अर्धनाराच (७६) केवल किल हो वह किलिका और (७७) हड्डी के दो छोर केवल छूकर रहे हो वह छेदस्पृष्ट अथवा सेवार्त्त संघयण कहा जाता है । बंधे हुए ये पाँचो पापप्रकृति के उदय से प्राप्त होता हैं ।
28. नाणंतरायदसगं, नव बीए नीअसाय मिच्छत्तं । थावरदसनिरय तिगं, कसाय पणवीस तिरियदुगं ।। १८ ।। ( नव.प्र.) 29. इति द्रव्यलोक प्रकाशे, कर्मग्रंथ बालवबोध में २-३ गुना बल भी कहा हैं ।
30. (१) ४ अनंतानुबंधि क्रोध मान-माया-लोभ, (५) २ हास्य- रति
(२) ४ अप्रत्याख्यानीय क्रोध मान माया लोभ, (६) २ शोक अरति
(३) ४ प्रत्याख्यानीय क्रोध
(७) २ भय जुगुप्सा
मान माया लोभ, मान-माया-लोभ,
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(४) ४ संज्वलन क्रोध (८) ३ वेद, ये २५ कषाय का विशेष स्वरूप पहले कर्मग्रंथ से जाने । 31. तिर्यंग की गति तथा आनुपूर्वी पाप में हैं और आयुष्य पुण्य में हैं, उसका कारण यह हैं कि तिर्यंच को जीने की अभिलाषा होती है, परन्तु तिर्यंच को अपनी गति और आनुपूर्वी इष्ट नहीं हैं ।
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