________________
षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
४११/१०३४ (२२-२६) अव्रत : प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह ये पाँच का अनियम-अत्याग, ये पाँच अव्रत कहे जाते हैं । जिससे ये पाँच क्रियाओं में वर्तन न करता होने पर भी त्यागवृत्ति न होने से कर्म का आश्रव (कर्म का आगमन) अवश्य होता है ।
तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग ये ३ मूल योग और अन्य ग्रन्थों में कहे हुए (उसी ३ योग के प्रतिभेद रूप) १५ योग द्वारा कर्म का आश्रव होता हैं । क्योंकि आत्मा जहाँ तक योगप्रवृत्तिवाला हैं, वहाँ तक आत्मप्रदेश उबलते हुए पानी की तरह चलायमान होते हैं और चलायमान आत्मप्रदेश कर्मग्रहण अवश्य करते हैं । केवल नाभिस्थान पे रहे हुए आठ रूचक नाम के आत्मप्रदेश अचल होने से कर्मग्रहण नहीं करते हैं ।
तथा २५ क्रिया का स्वरूप तो आगे गाथाओ से ही कहा जायेगा ।(34) यहाँ आत्मा के शुभाशुभ परिणाम तथा योग से होता आत्मप्रदेशो का कंपनत्व वह भावाश्रव और उसके द्वारा जो आठ प्रकार के कर्मदलिक (कर्मप्रदेश) ग्रहण हो वह द्रव्याश्रव । इस तरह से भी २ निक्षेपा कहे हैं ।
(२७-४२) २५ क्रिया : १. आत्मा जिस व्यापार द्वारा शुभाशुभ कर्म का ग्रहण करे, वह व्यापार ‘क्रिया' कहा जाता हैं । वहाँ काया को अजयणा से प्रवर्तित करना वह कायिकी क्रिया, वे भी सर्व अविरत जीव की सावध क्रिया अनुपरत कायिकी (चौथे गुणस्थानक तक) और अशुभ योगप्रवृत्ति वह दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया कही जाती है । (वह छठे गुणस्थानक तक जाने ।)
२. जिसके द्वारा आत्मा नरक का अधिकारी हो, उसे अधिकरण कहा जाता हैं । अधिकरण अर्थात् खड्ग आदि उपघातक द्रव्य, ऐसे उपघाती द्रव्य तैयार करना वह अधिकरणिकी क्रिया दो प्रकार की है ? १. खड्गादिक के अंगअवयव परस्पर जोडना वह संयोजनाधिकरणिकी और सर्वथा नये शस्त्रादि बनाना वह निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया यहाँ अपना शरीर भी अधिकरण जानना (यह क्रिया बादर कषायोदयी जीव को होने से ९वें गुणस्थानक तक होती हैं ।)
३. जीव अथवा अजीव के उपर द्वेष बताना, वह प्राद्वेषिकी क्रिया दो प्रकार की है । वहाँ जीव के उपर द्वेष करने से जीव प्राद्वेषिकी और स्वयं को पीडा (दर्द) करानेवाले कंटक, पत्थर आदि के उपर द्वेष हो, वह अजीव प्राद्वेषिकी क्रिया है। (यह क्रिया क्रोध के उदयवाली है, इसलिए ९वें गुणस्थानक पर जहाँ तक क्रोधोदय होता हैं, तब तक होती है।)
४. स्वयं को अथवा पर को ताडना-तर्जना द्वारा संताप देना - वह परितापनिकी क्रिया दो प्रकार की (प्रज्ञा. में ३ प्रकार की) कही हैं, वहाँ स्त्री आदिक के वियोग में अपने हाथ से अपना सर कूटना, इत्यादि से स्वहस्त पारितापनिकी क्रिया और दूसरे के हाथ से ऐसा कराने से परहस्त पारितापनिकी क्रिया कही जाती है । (यह क्रिया भी बादर कषायोदय प्रत्ययिक होने से ९(नौवे) गुणस्थानक तक हैं ।)
५. प्राण का अतिपात अर्थात् वध करना वह प्राणातिपातिकी क्रिया, दो प्रकार की हैं, वह पारितापनिकीवत् स्वहस्तिकी और परहस्तिकी ऐसे दो प्रकार की जाने । यह क्रिया अविरत जीवो को होती है । (इसलिए पाँचवें गुणस्थानक तक होती हैं।) उपरांत यह क्रिया घात किया हुआ जीव मर जाये तो ही लगे, अन्यथा नहीं ।
६. आरंभ से उत्पन्न हुई वह आरम्भिकी क्रिया, दो प्रकार की हैं । वहाँ सजीव जीव के घात की प्रवृत्ति वह जीव आरम्भिकी और चित्रित कियें अथवा पत्थरादि में कुतर के बनाये निर्जीव जीव को (स्थापना जीव को) मारने की प्रवृत्ति वह अजीव आरम्भिकी क्रिया । इस क्रिया में मारा जाता जीव उद्देश से मारने की बुद्धि से नहीं मारा जाता हैं, परन्तु घर
34. इंदिय - कसाय - अव्वय, जोगा पंच चउ पंच तिन्नि कमा । किरियाओ पणवीसं, इमा उ ताओ अणुक्कमसो ।।२१।। (नव.प्र.)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org