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षड्दर्शन समुच्चय भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
४०७/१०३० हो वह त्रसदशक तथा (३९) देवआयुष्य, (४०) मनुष्य आयुष्य और (४१) तिर्यंच आयुष्य की प्राप्ति ये ३ शभआयष्य और (४२) जिससे तीनो जगत् के पूज्य पदवीवाला केवलित्व प्राप्त हो वह तीर्थंकरत्व ये सर्व पुण्य तत्त्व के भेद हैं ।(26)
त्रस दशक : अब पहले बताये हुए त्रसदशक देखेंगे । (१) चल फिर सकने के योग्य शरीर की प्राप्ति हो वह त्रसपन (२) इन्द्रियगोचर हो सके ऐसे स्थूल शरीर की प्राप्ति हो वह बादर-पन (३) स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण हो सके, वह पर्याप्त-पन (४) जिससे एक शरीर की प्राप्ति (एक जीव को) हो वह प्रत्येक-पन (५) हड्डी, दाँत इत्यादि अवयवो को स्थिरता-दृढता प्राप्त हो वह स्थिर-पन, (६) नाभि से उपर के अवयव शुभ प्राप्त हो वह शुभ-पन, (७) उपकार नहीं करने पर भी सर्व जनको प्रिय हो वह सौभाग्य (८) कोकिल समान मधुर स्वर प्राप्त हो वह सुस्वर, (९) युक्तिविकल (अयुक्त) वचनो का भी लोक आदरभाव करे वह आदेय और (१०) लोक में यश:कीर्ति हो वह यशः, ये सर्व दिलानेवाले - जिससे ये सर्व मिले, उसे त्रसनाम कर्म इत्यादि कर्म कहे जाते हैं । इस प्रकार त्रस आदि १० भेद पुण्यतत्त्व में है ।(27) इस पुण्यतत्त्व में १ वेदनीय - १ गोत्रकर्म और ३ आयुष्य कर्म और ३७ नामकर्म के भेद हैं । अब यहाँ पहले प्रयोजित किये हुए आनुपूर्वी इत्यादि शब्दो के अर्थ देखेंगे ।
आनुपूर्वी - एक भव में से दूसरे भव में आनुपूर्वी अनुसार-आकाश प्रदेश की श्रेणी के क्रमानुसार - जब जीव जाता है, तब जो कर्म उदय में आता है, उसका नाम भी आनुपूर्वी नामकर्म कहा जाता हैं । जीव कोई बार सीधा दूसरे भव में जाता हैं, और कोई बार उसको आकाश प्रदेशो की श्रेणी में कोने (वक्रता) करने पड़ते हैं । वक्रता करते वक्त यह कर्म उदय में आता हैं और जो गति में उत्पन्न होनेवाला होता है, वहाँ पहुँचने तक उदय में रहते हैं ।
गति - मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक को लायक भिन्न-भिन्न परिस्थितियाँ वह मनुष्यादि गति कही जाती है । वह दिलानेवाला कर्म को उस उस गति नाम कर्म कहा जाता है ।
जाति - जगत् में रहे हुए प्रत्येक जीवो के बाह्य आकार और बाह्य सामग्री को सुधार पर वर्गीकरण करने से मुख्य पाँच वर्ग हो सकते हैं, उन वर्गो का नाम जाति हैं । वे एकेन्द्रियादि जाति है । उसमें से कोई भी जाति दिलानेवाला कर्म जातिनाम कर्म कहा जाता हैं ।
औदारिक - औदारिक वर्गणा का बना हुआ और मोक्ष में खास उपयोगी होने से उदार - अर्थात् औदारिक शरीर, हमारा तथा तिर्यंच का शरीर ऐसा माना जाता हैं । वह शरीर दिलानेवाला कर्म वह औदारिक शरीर नाम कर्म हैं ।
वैक्रिय - वैक्रिय वर्गणा का बना हुआ और विविध प्रकार की क्रिया में समर्थ ऐसा जो देव और नारको का शरीर, वह वैक्रिय शरीर । वह दिलानेवाला कर्म वह वैक्रिय शरीर नामकर्म ।
आहारक - आहारक वर्गणा का बना हुआ और चौदह पूर्वधरने शंका पूछने या तीर्थंकरादि की ऋद्धि देखने एक हाथ प्रमाण का, तत्काल पुद्गलो का आहरण करके बनाया हुआ, वह आहारक शरीर और वह दिलानेवाला कर्म वह आहारक शरीरनाम कर्म ।
तेजस् - तेजस् वर्गणा का बना हुआ और शरीर में गर्मी रखनेवाला, नजर से नहीं दिखाई देनेवाला प्रत्येक जीव के साथ अनादिकाल से जुडा हुआ शरीर वह तैजस शरीर और उसे दिलानेवाला कर्म वह तैजस् शरीर नामकर्म । 26. वन्नचउक्कागुरुलहु, परघाउस्सास आयुवुज्जो सुभखगइनिमिणतसदस, सुरनरतिरिआउ तित्थयरं ।।१६।। (नव.प्र.) 27. तस बायर पज्जत्तं, पत्तेअं थिरं सुभं च । सुभगं च सुस्सर आइज्ज जसं, तसाइदसगं इमं होइ ।।१७।। (नव.प्र.)
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