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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
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क्रियावंत है । और शेष चार द्रव्य अक्रियावंत हैं । यहाँ क्रिया वह गमन आगमन इत्यादि जाने । धर्मास्तिकायादि चारो द्रव्य सदाकाल स्थिर स्वभावी है इसलिए अक्रिय है । अपने-अपने स्वभाव की प्रवृत्तिरूप क्रिया में तो सभी द्रव्य सक्रिय माने जाते है, परन्तु वह सक्रियत्व यहाँ अंगीकार न करे । तथा छः द्रव्य में जीव और पुद्गल भिन्न भिन्न अवस्थायें प्राप्त करते होने से एक स्वरूप में रहते नहीं है, इसलिए ये दो द्रव्य अनित्य है और शेष चार द्रव्य सदाकाल अपने स्वरूप में स्थिर रहते होने से नित्य है, यद्यपि प्रत्येक द्रव्य उत्पत्ति, विनाश और ध्रुव ये तीन स्वभाव से युक्त होने से नित्यानित्य हैं, तो भी अपनी अपनी स्थूल अवस्थाओं के विषय में यहाँ नित्यत्व और अनित्यत्व सोचना हैं । तथा छः द्रव्य में धर्मास्तिकायादिक पाँच द्रव्य कारण हैं, और १ जीवद्रव्य अकारण हैं । यहाँ जो द्रव्य अन्य द्रव्य के कार्य में उपकारीनिमित्तभूत हो वह कारण और वह कारणद्रव्य जिस द्रव्य के कार्य में निमित्तभूत हुआ हो वह द्रव्य अकारण हा है । जैसे कुंभकार के कुंभकार्य में चक्र, दंड आदि द्रव्य कारण और कुंभकार स्वयं अकारण हैं, वैसे जीव के गति आदि कार्य में धर्मास्तिकाय इत्यादि और योग आदि कार्य में पुद्गल वह उपकारी कारण है । परन्तु धर्मास्तिकाय इत्यादि को जीव उपकारी नहीं है । इस प्रकार कारण - अकारण भावना विचार करे । तथा छः द्रव्य में जीव द्रव्य कर्ता और शेष पाँच द्रव्य अकर्ता हैं । यहाँ जो द्रव्य अन्य द्रव्य की क्रिया के प्रति अधिकारी (स्वामी) हो उसे कर्ता कहा जाता है, अथवा अन्य द्रव्यो का उपभोग करनेवाला द्रव्य कर्ता और उपभोग में आनेवाले द्रव्य वे अकर्ता कहे जाते हैं । तथा धर्म, कर्म, पुण्य, पाप आदि क्रिया करनेवाला वह कर्ता और धर्म, कर्म आदि नहीं करनेवाला वह अकर्ता ऐसा भी शास्त्र में कहा है। तथा छः द्रव्य में आकाशद्रव्य लोकालोक प्रमाण सर्व व्याप्त होने से सर्वव्यापी हैं और शेष पाँच द्रव्य लोकाकाश में ही होने से देशव्यापी हैं । तथा सर्व द्रव्य यद्यपि एक दूसरे में परस्पर प्रवेश करके एक ही स्थान में रहे हुए है, तो भी कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रुप में नहीं होता है । अर्थात् धर्मास्तिकाय वह अधर्मास्तिकाय नहीं होता हैं, जीव वह पुद्गल स्वरूप नहीं होता है, इत्यादि प्रकार से सर्व द्रव्य अपने अपने स्वरूप में रहते हैं, परन्तु अन्य द्रव्य रूप में नहीं होते है । उस कारण से भी द्रव्य अप्रवेशी है, परन्तु कोई द्रव्य सप्रवेशी नहीं है । यहाँ प्रवेश अर्थात् अन्य द्रव्य रुप से होना वह समझे ।
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इस प्रकार छः द्रव्य का परिणामि आदि विशेष स्वरूप कहा ।
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धर्मास्तिकाय, यदि न हो तो जीव और पुद्गल गति नहीं कर सकते अथवा गति कर सके ऐसा माने तो, अलोक में भी गति कर सकेंगे, परन्तु अलोक में तो एक तिनके जितना भी नहीं जा सकता है । अधर्मास्तिकाय न हो तो जीव और पुद्गल गति ही किया करे, स्थिर न रह सके और दोनों न हो तो लोक और अलोक की व्यवस्था न रहे, लोक की व्यवस्था तो कोई न कोई रुप में करनी तो पडेगी ही । - आकाशास्तिकाय न हो तो, अनन्त जीव और अनन्त परमाणु और उनके स्कंध अमुक स्थान में नहीं रह सकेंगे, एक तसु में एक लकडी रह सके और उतनी ही जगह में उतना सोना ज्यादा भारी होने पर भी वहाँ रह सकता है, वह आकाशास्तिकाय के कारण । जीवास्तिकाय न हो तो, जिस तरह से यह जगत् दिखता है, उस तरह से नहीं दिखाई देता । पुद्गलास्तिकाय भी न हो तो जिस तरह से यह जगत् दिखाई देता है, उस तरह से नहीं दिखाई देता । - काल न हो तो, प्रत्येक काम एक साथ करने पडते, या नहीं कर सकते । तब कालद्रव्य क्रम करा देता हैं ।
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होने से
(२) पुण्य तत्त्व : पुण्य- शुभ कर्मो का बंध । वे शुभ कर्म ४२ है, उसे पुण्य तत्त्व कहा जाता हैं और उसका उदय शुभ कर्म रूप में पुण्य भुगता जाता हैं । पुण्य के कारण वे शुभ आश्रव कहे जाते हैं और वे भी पुण्य बंध के कारण होने से पुण्य कहे जाते है । उसके नौ प्रकार नीचे बताये अनुसार हैं
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