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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ कार्मण - कार्मण वर्गणा का बना हुआ, वह आठ कर्मो के समूहरूप कार्मण शरीर माना जाता हैं और उसे दिलानेवाला कर्म वह - कार्मण शरीर नामकर्म कहा जाता हैं । कार्मण शरीर नामकर्म न हो तो, जीव को कार्मण वर्गणा ही नहीं मिल सकेगी और वह कार्मण शरीर ही आठ कर्मों की वर्गणा के रूप में बाँटा हुआ हैं ।
अंगोपांग-दो हाथ, दो पैर, मस्तक, पेट, पीठ, हृदय ये आठ अंग, ऊँगलीयाँ इत्यादि उपांग है और रेखायें इत्यादि अंगोपांग कहे जाते हैं । उसे दिलानेवाला कर्म वह अंगोपांग नामकर्म कहा जाता है । पहले तीन शरीर को अंगोपांग होते हैं । शेष सभी को नहीं होते है, इसलिए अंगोपांग कर्म तीन है ।
वज्रऋषभ नाराच संघयण - संहनन छः है । संहनन अर्थात् हड्डीयों का गट्ठा । वज्र - किला, ऋषभ-पट्टा, नाराच दोनो हाथ की ओर मर्कटबंध । ___ दोनों हाथ से दोनों हाथ की कलाई को परस्पर पकडे तो मर्कटबंध कहा जाता हैं । उसके उपर लोहे का पट्टा लगायें
और उसमें किला मारे, ऐसा करने से जैसी मजबूती हो ऐसा मजबूत हड्डीयों का गट्ठा, वज्र ऋषभ नाराच संहनन कहा जाता है । ऐसा मजबूत गट्ठा दिलानेवाला कर्म वज्र ऋषभ नाराच संहनन नामकर्म कहा जाता हैं ।
समचतुरस्र संस्थान - अर्थात् आकृति वह भी छ: हैं । सम-समान, चतुः - चार, अस्र - कोने । जो आकृति में चार कोने समान हो, वह समचतुरस्र संस्थान । चार कोने - १. पद्मासन में बैठे हुए मनुष्य के बाये घूटने से दाया कन्धा । २. दांये घूटने से बायाँ कन्धा । ३. दो घूटने के बीच का अंतर और ४. आसन के मध्य से ललाट तक । इस संस्थान वाले शरीर से जगत में कोई भी ज्यादा सुंदर शरीर न हो उसके शरीर की अद्भुत सुंदरता होती हैं, उसे समचतुरस्र संस्थान कहा जाता है । उसे दिलानेवाला कर्म वह समचतुरस्र संस्थान कर्म । बाकी के पाँच पाँच संस्थान और संघयण पापतत्त्व में आयेंगे।
(४) पापतत्त्व : जैसे पुण्य बाँधने के ९ प्रकार पहले कहे, वैसे यहाँ पाप बांधने के १८ प्रकार हैं, उसे १८ पापस्थानक कहे जाते हैं और वह प्राणातिपात (हिंसा), मृषावाद (असत्य), अदत्तादान (चोरी), मैथुन (स्त्रीसंग) और परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशून्य, रति-अरति, मायामृषावाद, परपरिवाद (निंदा) और मिथ्यात्व है। इस प्रकार १८ कारणो से ८२ प्रकार से बँधा हुआ पाप ८२ प्रकार से भुगता जाता हैं, वे ८२ प्रकार कर्म के भेदरूप हैं, वह इस प्रकार से है - __(१) पाँच इन्द्रिय और मन द्वारा नियत (अमुक) वस्तु का ज्ञान वह मतिज्ञान और उसको आच्छादन करनेवाला कर्म मतिज्ञानावरणीय कर्म, (२) शास्त्र को अनुसरण करता हुआ सद्ज्ञान वह श्रुतज्ञान और उसका आच्छादन करनेवाला श्रुतज्ञानावरणीय कर्म, (३) इन्द्रिय और मन के बिना आत्मा को रुपी पदार्थ का जो साक्षात् ज्ञान हो, वह अवधिज्ञान
और उसे आच्छादन करनेवाला अवधिज्ञानावरणीय कर्म, (४) ढाई द्वीप में संज्ञि पंचेन्द्रिय के मनोगत भाव जानना वह मनःपर्यवज्ञान और उसे आच्छादन करनेवाला मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म तथा (५) तीनो काल के सर्व पदार्थो के भाव एक समय में जाने जाये, वह केवलज्ञान और उसे आच्छादन करनेवाला कर्म केवलज्ञानावरणीय कर्म, ये पाँच कर्म के उदय से आत्मा के ज्ञानगुण का रोध (रुकावट) होता है, इसलिए ये पाँचो कर्म के बंध वह पाप के भेद हैं । (६) जिसके द्वारा देने योग्य वस्तु हो, दान का शुभ फल जानता हो और दान लेनेवाले सुपात्र की भी प्राप्ति हुई हो, फिर भी दान न दिया जा सके, वह दानान्तराय कर्म, तथा (७) दातार मिला हो, लेने योग्य वस्तु हो, विनय से याचना की हो फिर भी वस्तु की प्राप्ति जो कर्म से न हो वह लाभान्तराय कर्म, (८-९) जिससे भोग्य तथा उपभोग्य सामग्री विद्यमान हो तो भी भुगते न जा सके, वह भोगान्तराय कर्म तथा उपभोगान्तराय कर्म, यहाँ एकबार भुगतने योग्य आहारादि वह भोग्य और बार
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