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षड्, समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ
और १ अवसर्पिणी ये दो मिलकर १ कालचक्र २० कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण का होता है । इस प्रकार काल के लक्षण अथवा भेद कहे । ये सर्व भेद व्यवहार काल के जाने । यहाँ उत्सर्पिणी वह चढता हुआ काल और अवसर्पिणी वह उत्तरता काल है । क्योंकि आयुष्य - बल - संघयण - शुभवर्ण - गंध - रस - स्पर्श इत्यादि अनेक शुभ भावो की उत्सर्पिणी में क्रमशः वृद्धि होती रहती है; और अवसर्पिणी में हानि होती जाती हैं ।(18)
कालका विशेष स्वरूप : व्यवहारकाल : व्यवहारकाल और निश्चयकाल ऐसे काल २ प्रकार का हैं, जो २।। द्वीप और २ समुद्र जितने ४५ लाख योजन विष्कंभ - विस्तारवाले मनुष्य क्षेत्र में चन्द्र और सूर्य आदि ज्योतिषीर्यां भ्रमण-गति करती हैं । वह भ्रमण करते सूर्यादिक की गति ऊपर से जो काल का प्रमाण बँधा हुआ हैं, वह व्यवहारकाल उपर कहे अनुसार समय आवलिका इत्यादि भेदवाला हैं । ज्योतिष्करंडक ग्रंथ में कहा है कि
लोयाणमुज्जणीयं, जोइसचक्कं भणंति अरिहंता । सब्वे कालविसेसा, जस्स गइविसेसनिष्फन्ना ।।१।।
अर्थ : जिसकी गतिविशेष द्वारा सभी कालभेद उत्पन्न हुए हैं, उस ज्योतिश्चक्र को श्री अरिहंत भगवंतोने लोक स्वभाव से उत्पन्न हुई गतिवाला कहा है ।।१।। उस व्यवहार काल के विशेष भेद संक्षेप में इस प्रकार हैं - (१) अविभाज्य सूक्ष्म काल = १ समय
(१४)६ मास = १ उत्तरायण अथवा १ दक्षिणायन । (२) ९ समय = १ जघन्य अन्तर्मुहूर्त
(१५) २ अयन अथवा १२ मास = १ वर्ष । (३) असंख्य समय = १ आवलिका
(१६) ५ वर्ष = १ युग । (४) २५६ आवलिका = १ क्षुल्लकभव
(१७) ८४ लाख वर्ष = १ पूर्वांग । (५) ४४४६ २४५८/३७७३ आवलिका अथवा (१८) ७०५६०००००००००० = १ पूर्व ।
साधिक १७ ।। क्षुल्लक भव = १ श्वासोच्छ्वास (प्राण) (१९) असंख्य वर्ष = १ पल्योपम । (६) ७ प्राण (श्वासो ०) = १ स्तोक
(२०) १० कोडाकोडि पल्योपम = १ सागरोपम । (७) ७ स्तोक - १ लव
(२१) १० कोडाकोडि सागरोपम = १ उत्सर्पिणी अथवा १ अवसर्पिणी। (८) ३८।। लव = २ घडी
(२२) २० कोडाकोडि सागरोपम = १ कालचक्र । (९) ७७ लव अथवा २ घडी अथवा
(२३) अनन्त पुद्गल परावर्तन = भूतकाल ६५५३६ क्षुल्लक भव = १ मुहूर्त
(२४)इसलिए अनन्तगुणा पुद्गल परावर्तन = भविष्यकाल (१०) १ समयन्यून २ घडी = १ उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त । (२५)१ समय = वर्तमानकाल (११) ३० मुहूर्त = १ दिवस (अहोरात्र)
(२६) भूत, भविष्य और वर्तमानकाल = संपूर्ण व्यवहार काल (१२) १५ दिवस = १ पक्ष | (१३) २ पक्ष = १ मास
उपरांत यह व्यवहारकाल सिद्धान्त में स्निग्ध तथा रूक्ष ऐसे दो प्रकार से कहा हैं । उपरांत वह एक-एक जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदवाला होने से छ: प्रकार का होता है । रुक्षकाल में अग्नि आदि उत्पत्ति का अभाव होता हैं और स्निग्ध काल में अग्नि आदि की उत्पत्ति होती हैं । वह स्निग्धादि भेद का प्रयोजन हैं ।
निश्चय काल : द्रव्य के वर्तनादि पर्याय वह निश्चयकाल कहा जाता है, वह वर्त्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ऐसे ५ प्रकार का हैं । वहाँ सादिसान्त, सादिअनन्त, अनादि सान्त और अनादि अनन्त ये चार प्रकार की स्थिति में से कोई भी स्थिति में वर्तन करना, होना, रहना, विद्यमान होना; वह वर्तनापर्याय ।
18. यहाँ वर्णन किया हुआ कालका सर्व वर्णन व्यवहार काल का जाने । श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति, श्री सूर्य प्रज्ञप्ति और श्री ज्योतिष्करंडक आदि शास्त्रो में विशेष से व्यवहारकाल का ही वर्णन बहोत विस्तारपूर्वक किया हुआ हैं ।
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