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षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट - १, जैनदर्शन का विशेषार्थ
अनादि अनन्त, भाव से वर्णादि रहित अरुपी, गुण से ज्ञान दर्शनादि गुणयुक्त हैं और संस्थान से शरीरतुल्य विविध आकृतिरूप हैं । (६) काल द्रव्य : द्रव्य से अनन्त, क्षेत्र से २ ।। (ढाई) द्वीप प्रमाण, काल से अनादि अनन्त, भाव से वर्णादि रहित अरुपी और गुण से वर्तनादि पर्यायरूप हैं और संस्थान (सिद्धान्त में नहीं कहा हुआ होने से ) नहीं हैं । पुद्गल के परिणाम ( 15 ) शब्द - अंधकार उद्योत प्रभा छाया आतप वर्ण गंध रस और स्पर्श- ये
पुद्गलो के ही लक्षण (परिणाम) हैं ।
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शब्द : शब्द अर्थात् आवाज, ध्वनि, नाद । वह सचित्त, अचित्त और मिश्र ऐसे तीन प्रकार का हैं । जीव मुख द्वारा बोले वह सचित्त शब्द, पत्थर इत्यादि पदार्थ के परस्पर टकराने से हो वह अचित्त शब्द और जीव के प्रयत्न द्वारा बजते मृदंग आदि का मिश्र शब्द, शब्द की उत्पत्ति पुद्गल में से होती है और शब्द स्वयं भी पुद्गलरूप ही हैं । नैयायिक इत्यादि शब्द को आकाश से उत्पन्न हुआ और आकाश का गुण कहते हैं, परन्तु आकाश अरुपी है और शब्द रूपी है, इसलिए शब्द यह आकाश का नहीं परन्तु पुद्गल का गुण है । अथवा पुद्गल का (एक प्रकार का वह भी स्वरूप) लक्षण हैं । शब्द स्वयं ४ स्पर्शवाला है और उसकी उत्पत्ति आठ स्पर्शवाले पुद्गल स्कंध में से ही होती है, परन्तु चतुःस्पर्शी स्कंध मे से नहीं होती ।
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अन्धकार : अंधकार यह भी पुद्गलरूप हैं, शास्त्र में अंधकार को घ्राणेन्द्रिय ग्राह्य कहा हैं, नैयायिक इत्यादि अंध को पदार्थ मानते नहीं है । केवल " तेज का अभाव यह अंधकार" ऐसे अभावरूप मानते है, परन्तु श्री सर्वज्ञ प्रभु तो अन्धकार भी पुद्गल स्कंध है ऐसा कहते है, वही सत्य है ।
उद्योत : शीत वस्तु का शीत प्रकाश, वह उद्योत कहा जाता है । सूर्य के सिवा दिखाई देते चन्द्रादि - ज्योतिषी के विमान का, जूगन् इत्यादि जीवो का तथा चन्द्रकान्तादि रत्नो का जो प्रकाश है, वह उद्योत नामकर्म के उदय से है । तथा वह उद्योत जिसमें से प्रकट होता है, वे पुद्गल स्कंध है और उद्योत स्वयं भी पुद्गल स्कंध है ।
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प्रभा : चन्द्र, इत्यादि के प्रकाश में से तथा सूर्य के प्रकाश में से जो दूसरा किरण रहित उपप्रकाश पडता है, वह प्रभा पुद्गल स्कंध में से प्रकट हुई है और स्वयं भी पुद्गल स्कंधो का समूह हैं । यदि प्रभा न हो तो सूर्य इत्यादि के किरणो का प्रकाश जहाँ पडता हो वहाँ प्रकाश और उसके पास ही के स्थान में अमावस्या की मध्यरात्री समान अंधकार ही हो सके परन्तु उपप्रकाशरूप प्रभा होने से ऐसा नहीं बनता हैं । शास्त्र में चन्द्रादिक की कान्ति को भी प्रभा कही हैं ।
छाया : दर्पण में अथवा प्रकाश में पडता जो प्रतिबिंब वह छाया कहा जाता है । वह बादर परिणामी स्कंधो में से प्रति समय जल के फव्वारे की तरह निकलते आठ स्पर्शी पुद्गल स्कंधो का समुदाय ही प्रकाशादि निमित्त से तदाकार पंडित हो जाता हैं, उसे छाया कहा जाता है और वह शब्दादिवत् पहले बताये अनुसार दोनों तरह से पुद्गल रूप हैं ।
आतप : शीत वस्तु का उष्ण प्रकाश वह आतप । ऐसा प्रकाश सूर्य के विमान में रहे हुए बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय वो के शरीर का होता है और सूर्यकान्तादि रत्न का होता है, क्योंकि सूर्य का विमान और सूर्यकान्त रत्न स्वयं शीत है, और अपना प्रकाश उष्ण है । परन्तु अग्नि का उष्ण प्रकाश वह आतप नहीं कहा जाता, क्योंकि अग्नि स्वयं उष्ण है उपरांत चन्द्रादिक के उद्योत की तरह यह आतप स्वयं भी अनन्त पुद्गल स्कंधो का समुदाय प्रतिसमय सूर्य के विमान के साथ जो प्रतिबद्ध है, वह है, इसलिए दोनों प्रकार से पुद्गलरूप हैं ।
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वर्ण - ५ : श्वेतवर्ण, पीतवर्ण, रक्तवर्ण, नीलवर्ण और कृष्णवर्ण ये पाँच मूल वर्ण है । और नीला, गुलाबी, किरमजी आदि जो अनेक वर्ण भेद है, वह ये पाँच वर्ण में से किसी भी एक भेद की तारतम्यतावाले अथवा अनेक वर्णो के संयोग 15. सबंधयार उज्जोअ, पभा छायातवेहि अ ( इय) । वन्न -गंध-रसा फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ।। २१ ।। ( नव. प्र.)
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